नई दिल्ली।। उच्चतम न्यायालय ने आज केन्द्र सरकार के इस
तर्क से असहमति व्यक्त की कि सोशल साइट्स पर कथित रूप से आपत्तिजनक
टिप्पणियां लिखने के कारण कुछ व्यक्तियों की गिरफ्तारी 'इक्का दुक्का
घटनाएं' हैं। न्यायालय ने कहा कि यदि अपवाद थे तो भी बहुत गंभीर था।
न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ से केन्द्र सरकार के
वकील ने कहा कि वह सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66-ए के तहत की गई
गिरफ्तारियों को न्यायोचित नहीं ठहरा रहे है लेकिन प्राधिकारियों द्वारा
अपने विधाई अधिकारों के दुरूपयोग की 'इक्का दुक्का घटना' थीं।
न्यायाधीशों
ने कहा कि भले ही यह अपवाद और इक्का दुक्का घटनाएं हों, अधिकारों का उल्लंघन
बहुत ही निर्लज्ज और गंभीर है। न्यायालय इस कानून के कुछ प्रावधानों को
निरस्त करने सहित विभिन्न राहत के लिए दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था।
सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66-ए में गिरफ्तारी करने और इस संचार
माध्यम के जरिए आपत्तिजनक संदेश भेजने के आरोपी को तीन साल की कैद के
प्रावधान विवादों में हैं। एक याचिकाकर्ता की ओर से बहस शुरू करते हुए
वरिष्ठ अधिवक्ता सोली सोराबजी ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 :।::ए: में
प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए और शासन इस
अधिकार को कम नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 19 :2: के तहत इस
पर उचित नियंत्रण लगाया जा सकता है। सोराबजी ने कानून की धारा 66-ए को
निरस्त करने का अनुरोध करते हुए कहा कि इसमें 'अस्पष्टता' है और यह बहुत ही
आपत्तिजनक है।
उन्होंने कहा कि पहले भी ऐसे प्रावधान को निरस्त किया गया
है जो अस्पष्ट हों। कोई भी सार्वजनिक वक्तव्य किसी न किसी को परेशान कर
सकता है। इस पर न्यायालय ने एक मंत्री की कथित टिप्पणियों को लेकर संसद
में हाल ही में उठे विवाद का जिक्र किया और कहा कि यह कई पहलुओं पर निर्भर
करता है। न्यायालय ने कहा कि 'आक्रामक' शब्द का इस्तेमाल अलग अलग संदर्भ
में अलग तरीके से किया जा सकता है। आक्रामक शब्दों के मायने का मतलब अलग
अलग व्यक्तियों पर निर्भर करता है। सोराबजी ने कहा कि आलोचना को रोकने का
कोई भी प्रयास सेन्सरशिप के समान होता है। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति
परेशान हो सकता है लेकिन यह सेन्सरशिप लागू करने का आधार नहीं हो सकता।
न्यायालय यह भी जानना चाहता था कि भारतीय दंड संहिता क्या इस नए तरह के
आक्रामक रवैए से निबटने में अपर्याप्त थी और इसीलिए सूचना प्रौद्योगिकी में
यह दंडनीय प्रावधान शामिल किया गया। न्यायाधीशों ने कहा, ''हम आपसे यह
बताने की अपेक्षा करते हैं कि क्या इस तरह की जरूरतों को पूरा करने में
आईपीसी अपर्याप्त थी।
न्यायालय ने कहा कि वह सूचना प्रौद्योगिकी कानून की
धारा 66-ए की संवैधनिकता पर विचार करेगा। गैर सरकारी संगठन कामन काज के
वकील प्रशांत भूषण ने भी धारा 66-ए सहित इस कानून के तीन प्रावधानों को
निरस्त करने का अनुरोध किया। उनका कहना था कि ए अनुचित प्रावधान लोकतंत्र
की हत्या कर देंगे। इस मामले में अधूरी रही बहस कल भी जारी रहेगी। इससे
पहले, शीर्ष अदालत ने कहा था कि सोशल साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणियां लिखने
वाले व्यक्ति को पुलिस अपने वरिष्ठ अधिकारियों की अनुमति के बगैर गिरफ्तार
नहीं कर सकती है। न्यायालय ने इस तरह की टिप्पणियां लिखने के कारण
गिरफ्तारियों को लेकर उपजे जनाक्रोश के मद्देनजर यह निर्देश दिया था। लेकिन
न्यायालय ने देश भर में ऐसे व्यक्तियों की गिरफ्तारी पर रोक लगाने के लिए
अंतरिम आदेश देने से इंकार कर दिया था। धारा 66-ए निरस्त करने के लिए कानून
की छात्रा श्रेया सिंघल ने भी जनहित याचिका दायर कर रखी है।