जनता को बर्बाद कर देंगे... सरकारी खजाना लूटने वाले ये बेमतलब के विज्ञापन
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जनता को बर्बाद कर देंगे... सरकारी खजाना लूटने वाले ये बेमतलब के विज्ञापन

सरकार की होती है जमकर अपने विज्ञापनों पर फिजूलखर्ची
जनता की गाढ़ी मेहनत का सरकारी खज़ाना क्यों लुटाया जा रहा है और किस से पूछकर लुटाया जा रहा है ?
आखिर भोली भली जनता को बेवकूफ क्यों बनाया जा रहा है ?
   नई दिल्ली।। सूचना के अधिकार का सबसे ज्यादा उपयोग करने वाले सुभाष अग्रवाल ने अब एक और धमाका कर दिया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह अकेला आदमी कितना कमाल कर रहा है। कभी-कभी वह संसद से भी ज्यादा भारी दिखाई पड़ने लगता है। वह ऐसे सवाल सरकार से पूछ लेता है कि सरकार के पसीने छूटने लगते हैं। अभी-अभी सुभाषजी ने सरकारों से पूछा है कि आप सरकारी विज्ञापनों पर कितना खर्च करते हैं तो पता चला कि 2004 में भाजपा सरकार ने 150 करोड़ रु. खर्च किए थे, अपने 'शाइनिंग इंडिया' अभियान पर! कांग्रेस ने भाजपा को भी मात कर दिया। उसने अपने कार्यकाल में 485 करोड़ खर्च कर दिए, 'भारत-निर्माण' के विज्ञापनों पर! 
    इन विज्ञापनों में क्या होता है? नेताओं के बड़े-बड़े फोटो, नारे और उनकी उक्तियां। ये विज्ञापन इतने उबाऊ और घिसे-पिटे होते हैं कि पाठक लोग इन्हें पढ़ते तक नहीं हैं। इनका असर कितना होता है, इसका पता इसी से चलता है कि इन पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाने वाली सरकारें भी गुड़क जाती हैं। कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने चुनावों के दौरान अपनी दुकानें जमाने के लिए ये विज्ञापन की तोपें लगाई थीं लेकिन उनका माल बिकता, इसके बजाय उन दुकानों का दिवाला ही पिट गया। याने ये विज्ञापन निरर्थक सिद्ध हुए। ज्यादातर लोगों ने तो उन्हें देखा ही नहीं, जिन्होंने देखा, उन पर कोई असर नहीं हुआ। जनता की गाढ़े पसीने की कमाई को हर बार नेता लोग बेरहमी से बत्ती लगा देते हैं।
    यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी गया था। उसने भी सरकार से कहा था कि वह इन विज्ञापनों के लिए एक सुनिश्चित नीति निर्देश जारी करे। नेताओं के फोटो छापने बंद करे। जरुरी हो तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के फोटो छापे जा सकते हैं। इन लोगों की फोटुओं को रोज़-रोज़ देखकर लोग तंग आ जाते हैं। ऊबने लगते हैं। इन बारंबार छपने वाले फोटुओं के कारण नेताओं का ग्राफ गिरने लगता है। उनकी लोकप्रियता घटने लगती है लेकिन चाटुकार अफसरों और छुटभय्या नेताओं को कौन समझाए? वे अपने आकाओं की खुशामद में सरकारी खजाने में सेंध लगाते रहते हैं।
     यहाँ तक की ग्रामीण स्तर पर तो हालात इतने बुरे है की 15 अगस्त, 26 जनवरी, होली और दिवाली के नाम पर थोक के भाव सरपंच-सचिव, प्रधान और विकास अधिकारी मिलकर अपने वर्ष भर के कुकर्मों को छुपाने के लिए रिश्वत के तोर पर दैनिक अखबारों में सरकारी धन की बेमतलब के विज्ञापनों के नाम पर ऐसी माँ-बहन करतें हे, जिसका खामियाज़ा हमारे देश की भोली-भली जनता को उठाना पड़ता है। यहाँ सरकार से निवेदन है की ऐसे बेमतलब के त्योहारी विज्ञापनों का भुगतान सरपंच - सचिव के निजी पूंजी से करवाया जावे एवं जनता की गाढ़ी कमाई वाले सरकारी धन की तुरंत प्रभाव से रोक लगाई जावे।
    इस फिजूलखर्ची की आलोचना अखबार और टीवी चैनल क्यों करने लगे? नेताओं के आत्म-प्रेम के कारण उनकी तो जेबें सेत-मेंत में ही गर्म हो जाती हैं। हमारे राजनीतिक दल यह मानकर चलते हैं कि उनका सारा आंतरिक काम-काज गोपनीय रहना चाहिए। आम जनता को वह पता क्यों चले? सरकारी फिजूलखर्ची को सुभाष अग्रवाल जैसे लोक पकड़वा देेते हैं लेकिन राजनीतिक दलों की फिजूल आमदनी और फिजूलखर्ची अभी भी गुमनाम रहती है। सत्तारुढ़ दल भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे बन जाते हैं। इन्हें सूचना के अधिकार के तहत लाना सबसे ज्यादा जरुरी है। इस मामले में सारे दल एक-जैसे हैं।