मोहनदास करमचन्द गाँधी वैसे तो भारत के राष्ट्रपिता कहलाते हैं, लेकिन उन्होंने 1924 में मुसलमानों के प्रति अपना आगाह प्रेम प्रदर्शित करने के लिए आर्य समाज जैसे समाजिक व संस्कृति संस्था को प्रतिबंधित की वकालत करते हुए ब्रिटिश सरकार से कई बार निवेदन किया था। गाँधी ने आर्य समाज पर आक्रमण करवाने का घृणित कार्य भी किया और आर्य समाज की अपनी गहरे मन से निन्दा की थी।
आर्य समाज महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा गठित की गई वैदिक व समाजिक संस्था है, जो वेद के रहस्य को प्रचारित करती है। यह संस्था मुस्लिम समुदाय द्वारा देश में फैलाए जा रहे कुव्यवस्थाओं को उजागर करता रहा है। इसलिए मुसलमानों को आर्य समाज के गतिविधियाँ ख़ासकर भारत को मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने के उनके लक्ष्य में बाधा लगता था। लिहाजा गाँधी ने मुसलमानों को खुश रखने के लिए आर्य समाज पर हमले कराने जैसे पतित कार्य को भी संपादिक किया था।
यह खुलासा गोपाल गोडसे ने अपनी पुस्तक में की है। उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समुदाय नाराज न हो इसके लिए गाँधी किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। आर्यसमाज ने बहुत ही सभ्य ढंग से जब गाँधी के इस घृणित कार्य का उत्तर दिया तब गाँधी ने राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके आर्य समाज को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा। वास्तविकता तो यह है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का कोई भी अनुयायी गाँधी पथ पर नहीं चल सकता, क्योंकि दोनों की स्थितियाँ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, परन्तु कुछ लोग नेता बनने की इच्छा से दोहरी चाल चलते रहे। एक ओर, वे आर्य समाजी रहे और दूसरी ओर, गाँधीवादी काँग्रेसी। इसका परिणाम यह हुआ कि जब सिन्ध में गाँधी के ईशारे पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबंध लगा तो आर्य समाज इस विषय में अधिक कुछ न कर सका।
इसलिए आर्य समाज का प्रभाव और भी कम होता गया। आर्य समाज के सदस्य पक्के देशभक्त होते हैं। लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द, दो पक्के आर्य समाजी थे, परन्तु अंत तक कांग्रेस के नेता रहे। वे गाँधी के अनुयायी नहीं थे, प्रत्युत उनकी मुसलमानों का पक्ष लेने की नीति के विरोधी थे, परन्तु वे महापुरुष शांत हो चुके थे। बहुत से आर्य समाजी वैसे ही रहे जैसे कि वे थे, किन्तु प्रायः स्वार्थी लोग उनका मार्ग दर्शन करते रहे और गाँधी के कारण आर्य समाज की वह शक्ति न रही जो किसी समय थी।
अलबत्ता, गाँधी ने जिस मकसद से आर्य समाज की निन्दा की थी, उससे गाँधी मुसलमानों में उतने लोकप्रिय नहीं हुए। प्रत्युत उनके इस आचरण ने मुसलमानों को उकसा दिया और एक मुसलमान युवक ने आरोप लगाया कि यह संस्था बुरी भावना फैलाने वाली है। यह आरोप नितांत असत्य था। प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि आर्य समाज ने हिन्दू समाज में अनेक सुधार किये हैं।
आर्य समाज ने विधवा विवाह प्रारंभ किए। आर्य समाज ने जातपात को समाप्त करने के क्रांतिकारी प्रयत्न किए और हिन्दुओं की ही नहीं, प्रत्युत उनकी एकता का प्रचार किया जो आर्य समाज के सिद्धांतों को मानते हों। तत्कालीन समाचार माध्यमों, अख़बारों और गाँधी के संस्थाएँ इस बात पर पर्दा डालने में सफल रहे कि गाँधी ने आर्य समाज को कितनी हानि पहुँचाई है। देश के आम लोग भी गाँधी के महिमा मंडन में उनके राष्ट्रविरोधी कार्यों को भूल गए हैं।
महर्षि दयानन्द जो आर्य समाज के निर्माता थे, हिंसा और अहिंसा के प्रपंच से निर्लिप्त थे। वे तो कहते थे कि जब आवश्यकता हो तब शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। एक समय ऐसा भी आया जब आर्य समाजियों के लिए धर्म संकट उपस्थित हुआ कि आर्य समाज में रहें या काँग्रेस में। क्योंकि कांग्रेस में तो उनको अहिंसा के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ता, परन्तु स्वामी की मृत्यु हो चुकी थी और गाँधी का सितारा चमक रहा था, इसलिए लोग गाँधी के अनुयायी हो गए। इस तरह आर्य समाज को खत्म करने का सपना गाँधी का सफल होता दिखने लगा।
(Pushpa Devi)
आर्य समाज महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा गठित की गई वैदिक व समाजिक संस्था है, जो वेद के रहस्य को प्रचारित करती है। यह संस्था मुस्लिम समुदाय द्वारा देश में फैलाए जा रहे कुव्यवस्थाओं को उजागर करता रहा है। इसलिए मुसलमानों को आर्य समाज के गतिविधियाँ ख़ासकर भारत को मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने के उनके लक्ष्य में बाधा लगता था। लिहाजा गाँधी ने मुसलमानों को खुश रखने के लिए आर्य समाज पर हमले कराने जैसे पतित कार्य को भी संपादिक किया था।
यह खुलासा गोपाल गोडसे ने अपनी पुस्तक में की है। उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समुदाय नाराज न हो इसके लिए गाँधी किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। आर्यसमाज ने बहुत ही सभ्य ढंग से जब गाँधी के इस घृणित कार्य का उत्तर दिया तब गाँधी ने राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके आर्य समाज को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा। वास्तविकता तो यह है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का कोई भी अनुयायी गाँधी पथ पर नहीं चल सकता, क्योंकि दोनों की स्थितियाँ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, परन्तु कुछ लोग नेता बनने की इच्छा से दोहरी चाल चलते रहे। एक ओर, वे आर्य समाजी रहे और दूसरी ओर, गाँधीवादी काँग्रेसी। इसका परिणाम यह हुआ कि जब सिन्ध में गाँधी के ईशारे पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबंध लगा तो आर्य समाज इस विषय में अधिक कुछ न कर सका।
इसलिए आर्य समाज का प्रभाव और भी कम होता गया। आर्य समाज के सदस्य पक्के देशभक्त होते हैं। लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द, दो पक्के आर्य समाजी थे, परन्तु अंत तक कांग्रेस के नेता रहे। वे गाँधी के अनुयायी नहीं थे, प्रत्युत उनकी मुसलमानों का पक्ष लेने की नीति के विरोधी थे, परन्तु वे महापुरुष शांत हो चुके थे। बहुत से आर्य समाजी वैसे ही रहे जैसे कि वे थे, किन्तु प्रायः स्वार्थी लोग उनका मार्ग दर्शन करते रहे और गाँधी के कारण आर्य समाज की वह शक्ति न रही जो किसी समय थी।
अलबत्ता, गाँधी ने जिस मकसद से आर्य समाज की निन्दा की थी, उससे गाँधी मुसलमानों में उतने लोकप्रिय नहीं हुए। प्रत्युत उनके इस आचरण ने मुसलमानों को उकसा दिया और एक मुसलमान युवक ने आरोप लगाया कि यह संस्था बुरी भावना फैलाने वाली है। यह आरोप नितांत असत्य था। प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि आर्य समाज ने हिन्दू समाज में अनेक सुधार किये हैं।
आर्य समाज ने विधवा विवाह प्रारंभ किए। आर्य समाज ने जातपात को समाप्त करने के क्रांतिकारी प्रयत्न किए और हिन्दुओं की ही नहीं, प्रत्युत उनकी एकता का प्रचार किया जो आर्य समाज के सिद्धांतों को मानते हों। तत्कालीन समाचार माध्यमों, अख़बारों और गाँधी के संस्थाएँ इस बात पर पर्दा डालने में सफल रहे कि गाँधी ने आर्य समाज को कितनी हानि पहुँचाई है। देश के आम लोग भी गाँधी के महिमा मंडन में उनके राष्ट्रविरोधी कार्यों को भूल गए हैं।
महर्षि दयानन्द जो आर्य समाज के निर्माता थे, हिंसा और अहिंसा के प्रपंच से निर्लिप्त थे। वे तो कहते थे कि जब आवश्यकता हो तब शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। एक समय ऐसा भी आया जब आर्य समाजियों के लिए धर्म संकट उपस्थित हुआ कि आर्य समाज में रहें या काँग्रेस में। क्योंकि कांग्रेस में तो उनको अहिंसा के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ता, परन्तु स्वामी की मृत्यु हो चुकी थी और गाँधी का सितारा चमक रहा था, इसलिए लोग गाँधी के अनुयायी हो गए। इस तरह आर्य समाज को खत्म करने का सपना गाँधी का सफल होता दिखने लगा।
(Pushpa Devi)