टमाटर, आलू से लेकर ब्रेड मक्खन और मोबाइल फ़ोन से लेकर कुर्सी मेज सब कुछ इन्टरनेट पर बिक रहा है. ऐसा लाज़मी है क्यूंकि चीन के बाद भारत विश्व में इन्टरनेट का सबसे बड़ा यूज़र है जहाँ अब 30 करोड़ से ज्यादा लोग नेट से जुड़े हैं.
सब्जी फल के साथ साथ विचारधारा भी इन्टरनेट के बाज़ार में उतरी है. संघी और आपियन तो नेट रणभूमि में ट्विटर और फेसबुक की जंग लड़ ही रहे हैं अब बसपा और जनता दल जैसी पार्टियाँ भी इस मंच को भेदने का मन बना रही हैं. सम्यावादियों का एक बड़ा तबका भी नेट पर असर दार है. आजादी का ये सबसे आज़ाद वैचारिक संघर्षं का दौर है.
फेसबुक पर घमासान इस कदर है कि अगर आपकी मित्र सूची में 2 से 5 हज़ार सदस्य हैं तो मोदी और केजरीवाल के समर्थन और विरोध की बौछार में आप पूरी तरह से कन्फ्यूज़ हो जायेंगे. इस वर्चुअल वार का दूसरा मंच साम्प्रदायिक वैमनस्य से भरा है जहाँ हर मुद्दे को भगवा और हरे रंग में डूबोकर लिखा जाता है. याकूब की फांसी तक में ये रंग आपको पढ़ने में मिलेगा.
विचारधारा की एक बहस लिंग भेद पर भी है जहाँ कुछ लोग इन्द्रानी छाप कहानियों में भी जेंडर की बात करेंगे. तीन शादियाँ की तो इससे मर्डर का क्या मतलब ? दूसरा तबका संस्कारों की दुहाई देगा. बहस शराब से शुरू होकर ब्रा पहनने की आजादी तक पहुंचेगी और आप एक बार फिर जेंडर की जड़ में लिपटकर कन्फ्यूज़ हो जायेंगे.
परस्पर विरोधी विचारधाराओं को जानना बुरा नही है. लेकिन परस्पर विरोधी विचारधारा जब हावी होने लगे तो इसका सबसे बुरा प्रभाव मीडिया पर पड़ता है. मीडिया मुद्दों पर संतुलन खो देती है और अक्सर तटस्थ श्रोता कन्फ्यूज़ हो जातें है .
शायद इसीलिए हार्दिक पटेल के सवाल पर भी कोई संतुलित आंकलन सुनने पढ़ने को नही मिल रहा है. लैंड बिल या ललित मोदीप्रकरण पर भी मीडिया में कोई संतुलित और सटीक आंकलन उपलब्ध नही है. हर जगह कोई न कोई टिल्ट है.
नौबत ये है कि चैनल तो चैनल...नामी गिरामी एंकर भी विचारधाराओं के खेमे में बंटे हैं और पब्लिक उनका मत जान गयी है. कौन किस मुद्दे पर क्या बोलेगा या लिखेगा अब ज्यादातर लोग पहले से भांप जाते है. हमे संतुलित होने की बेहद सख्त ज़रुरत है वर्ना ढाका के ब्लोगरों जैसे हाल यहाँ भी देखने को मिल सकते है. कर्नाटका में एक घटना आज कुछऐसी हीलगती है जहाँ एक प्रोफेसर को गोली मारी गयी है .
वक़्त आ गया है कि हम और आप संतुलन की खोज मेंआगे बढ़े....वरना नक्सल इलाकों में सक्रीय अतिवादी इस मौके का लाभ उठाएंगे . ध्यान रहे इन्टरनेट भ्रम के इस भंवर में घी का काम कर रहा है.
सब्जी फल के साथ साथ विचारधारा भी इन्टरनेट के बाज़ार में उतरी है. संघी और आपियन तो नेट रणभूमि में ट्विटर और फेसबुक की जंग लड़ ही रहे हैं अब बसपा और जनता दल जैसी पार्टियाँ भी इस मंच को भेदने का मन बना रही हैं. सम्यावादियों का एक बड़ा तबका भी नेट पर असर दार है. आजादी का ये सबसे आज़ाद वैचारिक संघर्षं का दौर है.
फेसबुक पर घमासान इस कदर है कि अगर आपकी मित्र सूची में 2 से 5 हज़ार सदस्य हैं तो मोदी और केजरीवाल के समर्थन और विरोध की बौछार में आप पूरी तरह से कन्फ्यूज़ हो जायेंगे. इस वर्चुअल वार का दूसरा मंच साम्प्रदायिक वैमनस्य से भरा है जहाँ हर मुद्दे को भगवा और हरे रंग में डूबोकर लिखा जाता है. याकूब की फांसी तक में ये रंग आपको पढ़ने में मिलेगा.
विचारधारा की एक बहस लिंग भेद पर भी है जहाँ कुछ लोग इन्द्रानी छाप कहानियों में भी जेंडर की बात करेंगे. तीन शादियाँ की तो इससे मर्डर का क्या मतलब ? दूसरा तबका संस्कारों की दुहाई देगा. बहस शराब से शुरू होकर ब्रा पहनने की आजादी तक पहुंचेगी और आप एक बार फिर जेंडर की जड़ में लिपटकर कन्फ्यूज़ हो जायेंगे.
परस्पर विरोधी विचारधाराओं को जानना बुरा नही है. लेकिन परस्पर विरोधी विचारधारा जब हावी होने लगे तो इसका सबसे बुरा प्रभाव मीडिया पर पड़ता है. मीडिया मुद्दों पर संतुलन खो देती है और अक्सर तटस्थ श्रोता कन्फ्यूज़ हो जातें है .
शायद इसीलिए हार्दिक पटेल के सवाल पर भी कोई संतुलित आंकलन सुनने पढ़ने को नही मिल रहा है. लैंड बिल या ललित मोदीप्रकरण पर भी मीडिया में कोई संतुलित और सटीक आंकलन उपलब्ध नही है. हर जगह कोई न कोई टिल्ट है.
नौबत ये है कि चैनल तो चैनल...नामी गिरामी एंकर भी विचारधाराओं के खेमे में बंटे हैं और पब्लिक उनका मत जान गयी है. कौन किस मुद्दे पर क्या बोलेगा या लिखेगा अब ज्यादातर लोग पहले से भांप जाते है. हमे संतुलित होने की बेहद सख्त ज़रुरत है वर्ना ढाका के ब्लोगरों जैसे हाल यहाँ भी देखने को मिल सकते है. कर्नाटका में एक घटना आज कुछऐसी हीलगती है जहाँ एक प्रोफेसर को गोली मारी गयी है .
वक़्त आ गया है कि हम और आप संतुलन की खोज मेंआगे बढ़े....वरना नक्सल इलाकों में सक्रीय अतिवादी इस मौके का लाभ उठाएंगे . ध्यान रहे इन्टरनेट भ्रम के इस भंवर में घी का काम कर रहा है.
(Deepak Sharma)
India Samvad