हिंदू धार्मिक ग्रंथों को सहेजने वाली ‘गीताप्रेस’ में आखिर क्यों लगा ताला ?
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हिंदू धार्मिक ग्रंथों को सहेजने वाली ‘गीताप्रेस’ में आखिर क्यों लगा ताला ?

जाने इसे बंद करने वाले खलनायक के बारें में   
    गोरखपुर।। गीता प्रेस से कौन परिचित नहीं है। 1920 के दशक में दो मारवाड़ी व्यापारियों जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गीता प्रेस और ‘कल्याण’ पत्रिका की स्थापना की थी। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि सनातन हिंदुत्व के विस्तार में गीता प्रेस सबसे पुराना और कामयाब प्रिंट उपक्रम है। इसका सबसे बड़ा योगदान है हिंदू धार्मिक ग्रंथों को आम लोगों तक सस्ते दाम में घर-घर तक पहुंचाया और हिंदुत्व पुनरुत्थानवादियों के मिशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
    आज की राजनीति में जब हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान की बात होती है या घर वापसी पर बहस छिड़ती है, या गोमांस पर प्रतिबंध की मांग गर्म होती है तो इसे सीधे गीता प्रेस, कल्याण से, उनकी स्थापना के दिनों से जोड़कर देखा जा सकता है।
   मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ की आज भी दो लाख से ज़्यादा प्रतियां बिकती हैं। अंग्रेज़ी मासिक संस्करण ‘कल्याण कल्पतरु’ की एक लाख से ज़्यादा प्रतियां घरों तक पहुंचती हैं।
    देश के दो सबसे बड़े धार्मिक ग्रंथ गीता की 11.42 करोड़ प्रति और रामचरितमानस की 9.22 करोड़ प्रति अब तक बेच चुकी गीता प्रेस को बचाने की गुहार लगाई जा चुकी है। सुबह से हजारों ट्वीट और फेसबुक पोस्ट हो चुके हैं। लोगों को इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि लगभग 95 साल पुरानी ‘गीता प्रेस गोरखपुर’ पर ताला लग गया है। हिंदू धर्म को मानने वालों के लिए गीता प्रेस भी किसी आस्‍था के केंद्र से कम नहीं है। आज भी धार्मिक लोगों की सुबह इन्हीं पुस्तकों के साथ होती है। गीताप्रेस की शुरुआत में धार्मिक पुस्‍तकों को छापने से हुई। फिर यह संस्‍था समाज कल्‍याण के क्षेत्र में बढ़ती चली गई। इस बात की परवा‍ह किए बिना कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा।
गीताप्रेस की कुछ खास बातें:
     गीताप्रेस गोरखपुर दुनिया में सबसे ज़्यादा धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है। हर साल करीब 1 करोड़ 75 लाख पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं। प्रेस की स्थापना से अब तक इस प्रकाशन की 58 करोड़ 25 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं।
   गीता की 1142 लाख प्रतियां, रामचरितमानस की 922 लाख प्रतियां, पुराण और उपनिषदों की 227 लाख प्रतियां, स्त्री और बालसाहित्य की 1055 लाख प्रतियां, भक्त चरित्र औऱ भजनमाला की 1244 लाख प्रतियां और अन्य प्रकाशनों की 1235 प्रतियां अब तक बेची जा चुकी हैं।
    हिन्दी और संस्कृत के अलावा ये संस्था गुजराती, तेलगू, ओडिया, अंग्रेजी, बंगला, मराठी, तमिल, कन्नड़, असमिया, मलयालम, नेपाली उर्दू और पंजाबी में भी पुस्तकें प्रकाशित करती है। यहां लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम मूल्यों पर पुस्तकें बेची जाती हैं।
    सरकार से इस संस्था को कागज पर कोई सब्सिडी नहीं मिलती. प्रेस बाज़ार भाव पर ही कागज खरीदती है। गांधी जी की सलाह के अनुसार यहां की पुस्तकों में किसी तरह के विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए जाते है। प्रेस अपनी कमाई को भी जनता की भलाई पर खर्च करती है। कई स्कूल और धर्मिक संस्थाओं में योगदान देती है।
    गीता प्रेस कागज़ पर सिर्फ छपाई करने वाली संस्था नहीं है बल्कि हमारी धरोहर, हमारी संस्कृति को सहेजकर उसे जन-जन तक प्रसारित करती है। इस पुस्तकों पर लिखे श्लोक अब सिर्फ पुस्तकों पर ही छपे नहीं रह गए बल्कि हमारे मानस पटल पर भी अंकित हो चुके हैं। गीताप्रेस की पुस्तकें हर घर, हर वर्ग तक पहुंचे, इसके लिए इन पुस्तकों की कीमत लागत से आधी से भी कम रखी गईं। जिस हिसाब से हर रोज महंगाई बढ़ रही है, वहां इनकी पुस्तकों के दाम कभी नहीं बढ़े क्योंकि संस्था का उद्देश्य पैसा कमना नहीं हैं। पर दुख की बात है कि शायद हमारी आने वाली पीढ़ियां इस लाभ से वंचित रह जाएंगी।
गीताप्रेस पर ताला लगने की वजह? 
     सनातन धर्म का प्रचार करने वाली इस संस्था की परेशानियां भी सनातन हैं। गीतप्रेस में 180 स्थाई कर्मचारी हैं और करीब 300 लोग कॉन्ट्रेक्ट पर काम करते हैं। प्रेस पर ताला लगने की वजह है कर्मचारियों और ट्रस्ट के बीच का झगड़ा। प्रेस के कर्मचारी सम्‍मानजनक वेतन, चिकित्सा लाभ की मांग कर रहे हैं, जिसपर अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है। गीताप्रेस पास इतना पैसा नहीं है कि वो कर्मचारियों को उनके मुताबिक वेतन दे सकें। प्रेस के कर्मचारी आज मुफलिसी का जीवन जी रहे हैं, गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकें देश विदेश में बिकती हैं, लेकिन इस प्रेस में काम करने वाले लोग अपने बच्चों के हाथों में पुस्तकें नहीं थमा पा रहे, दो वक्त की रोटी जुटा पाना भी उनके लिए मुश्किल हो रहा है। 
गीता प्रेस की बंदी का खलनायक कौन?
    गोरखपुर का गीता प्रेस, सबसे सस्ती धार्मिक पुस्तक प्रकाशित करने वाला प्रकाशक इस समय बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है. गीता प्रेस पर बंदी का संकट मंडरा रहा है, कुछ लोग इसे कर्मचारियों तो कुछ प्रबन्धन पर इसे बंदी की ओर ले जाने का दोष मढ़ते है. मीडिया भी अपने अपने स्तर से व्याख्या कर रहा है. यह पूरी तरह से सत्य है कि गीता प्रेस पूरी दुनिया में सबसे सस्ता धार्मिक साहित्य उपलब्ध कराता है. तुलसीदास की रामचरित मानस को घर घर पहुचाने का श्रेय गीता प्रेस को ही जाता है लेकिन नीति और नैतिकता की बात करने वाले गीता प्रेस में कर्मचारियों का सालो से शोषण हो रहा है, और शायद इसी वजह से कर्मचारी प्रबन्धन की बात मानने को तैयार नही हो रहे है. 20 साल 25 साल से गीता प्रेस में काम करने वाले कर्मचारी अभी भी 6 हजार महीने का वेतन पाते है. आप इसे शोषण नही कहेंगे तो क्या कहेंगे? 
     क्या इतनी लम्बी सेवा करने वाले को मात्र 6 हजार मासिक का वेतन मिलना चाहिये. गीता प्रेस कर्मचारियों का शोषण करके देश के लोगो को सस्ता धार्मिक साहित्य उपलब्ध कराये क्या यह न्याय संगत है? भाई मुझे तो नही लगता. गीता प्रेस को पुस्तको की कीमते बढाकर कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने चाहिये. उनके घरो में चूल्हे जलाने का इंतजाम करना चाहिये. कई कर्मचारियों के बच्चे स्कूल नही जा पा रहे है. आखिर ये सभी कर्मचारी गीता प्रेस परिवार के सदस्य है, संस्थान को सबसे पहले इनकी चिंता करनी चाहिये फिर सस्ता धार्मिक साहित्य खरीदने वालो की. आपको यह भी पता होगा कि गीता प्रेस जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के नाम से गोरखपुर व् लखनऊ समेत कई शहरों में साड़ी व् अन्य कपड़ो की दुकाने भी यही प्रबन्धन चलाता है. महज नाम की वजह से वहा पुरे दिन खरीददारो की भीड़ रहती है. इसका प्राफिट कौन लेता है? इसका भी खुलासा प्रबन्धन को करना चाहिये.