ऐसा नगर जहां रहती हैं मां कामाख्या
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ऐसा नगर जहां रहती हैं मां कामाख्या

    गुवाहाटी।। असम राज्य की राजधानी गुवाहाटी एक समृद्ध शहर है, जो ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर बसा है। इस शहर का पौराणिक नाम प्राग्ज्योतिषपुर था। जिसे नरकासुर ने बसाया था। नगर की एक ओर नीलाचल पहाड़ी स्थित है। जिस पर स्थित है मां कामाक्षी (कामाख्या) देवी का विख्याता मंदिर। यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है।
    देवी भागवत के सातवें स्कंध के अड़तालीसवें अध्याय में लिखा है कि, 'यह क्षेत्र में समस्त भूमंडल में महाक्षेत्र माना गया है। यहां साक्षात् मां दुर्गा निवास करती हैं। इनके दर्शन-पूजन से सभी तरह के विघ्नों से छुटकारा मिलता है। यहां तंत्र साधना करने वालों को जल्द ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसी महिमा अन्य कहीं ओर मिलना कठिन है।'
मंदिर जाने के लिए...
    मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से पांच किलो मीटर दूरी पर नीलाचल नामक पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी की तराई में प्रवेश द्वार है। इस प्रवेश-द्वार से ऊपर जाने में एक किलोमीटर की सीधी चढ़ाई, चढ़ना पड़ती है। इसके अतिरिक्त पर्वत-शिखर तक पक्का मार्ग बना है।
   प्रवेश-द्वार के सामने ही मिलने वाली मोटर-टैक्सियां देवीपीठ तक पहुंचा देती हैं। समुद्र के जलस्तर से इस देवीपीठ की ऊंचाई 525 फीट है। यह देवीपीठ भूमि के नीचे है। धरातल से सात सीढ़ियां नीचे उतरने और वहां से बाईं ओर से पुनः दस सीढ़ियां नीचे उतरने पर देवीपीठ का दर्शन होता है। यहां कोई मूर्ति नहीं है, बस एक गहरा एक कुंड है, जहां लालवस्त्र से मां का योनीपीठ ढंका रहता है।
   यही सिद्धिपीठ है, इसी के दर्शन पूजन का विधान है। दस महाविद्याओं में षोडशीदेवी का ही नाम कामाक्षी देवी है। इसी के पार्श्व में मातंगी (सरस्वती) एवं कमला (लक्ष्मी) दोनों देवियों के पीठस्थान है। मंदिर से उत्तर की ओर सौभाग्यकुंड नामक क्रीड़ा पुष्पकरिणी है।
   कहा जाता है इस कुंड को देवताओं ने बनवाया था। मंदिर के पीछे गणेशजी की विशाल मूर्ति है। इसी पहाड़ी पर सात महाविद्यालयों के भी मंदिर हैं। माना जाता है कि कामदेव ने यहां कामाक्षी का मंदिर बनवाकर उनकी आराधना की। इससे देवी प्रसन्न हुईं और कामदेव को दिव्यज्ञान प्रदान किया। इसी कारण इस पुण्यभूमि का नाम कामरूप और देवी का आंदाख्या पड़ा, जिसको अब कामाख्या कहा जाता है।
   अनेक वर्षों के कालचक्र एवं भूकंप के कारण यह मंदिर विध्यवस्थ होकर केवल मिट्टी का टीला ही रहा गया था। पुनः इस मंदिर का निर्माण कामरूप के राजा विश्वसिंह ने कराया। इतिहास में उल्लेख मितला है कि सन् 1553 ईसवी में बंगाल के नबाव सुलेमान कररानी के दामाद एवं सेनानायक काला पहाड़ था। उस आततायी का उद्देश्य हिंदू-धर्म का गौरव नष्ट करना था। उसने इस मंदिर के शिखर-भाग को क्षति पहुंचाई एवं उस पर की बनी हुई मूर्तियां को नष्ट किया। इसके पश्चात सन् 1565 ईसवी में इसका जीर्णोद्धार हुआ।