तो क्या पत्रकारिता ‘मर’ चुकी है? या पत्रकार नकली हो गये हैं?
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तो क्या पत्रकारिता ‘मर’ चुकी है? या पत्रकार नकली हो गये हैं?

     जिस प्रकार से आजकल पत्रकारिता के मानकों का मखौल उड़ाया जा रहा है उससे यही साबित होता है कि आने वाला समय पत्रकारिता के लिए कतई अच्छा नहीं है। हंस के वेष में घूम रहे तमाम कौवे ने हमारे समाज को गंदा कर दिया है। जहां एक ओर आम आदमी की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाना पत्रकारिता का मकसद हो गया है वहीं राजनीतिक पार्टियों के धुरंधरों के तलवे चाटने वाली भारतीय मीडिया को अब विश्व स्तर पर भी नकारने की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगी है।
     बड़े-बड़े चैनलों को बेशर्मों की तरह एक ही आवाज को बार-बार दोहराने के पीछे का मकसद अब जनता समझने लगी है। अखबारों को भी सरकारी विज्ञापनों की लालसा ने ‘मृत ’ घोषित कर दिया है। शहर के तीन अखबारों में एक ही खबर एक जैसा संदेश देने वाली नहीं मिल सकती? आखिर क्यों? कभी-कभी तो दुर्घटना जैसे मामलों में भी मृतकों की संख्या में अंतर पाया जाना अखबारों के व्यापारिक दृष्टिकोण को साबित करने में पूर्ण रूप से सक्षम होता है।



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