दिल्ली सल्तनत का सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक चौदहवीं सदी में. 1300 से 1351 तक, जिसे ‘भारतीय इतिहास का सबसे मूर्ख सुल्तान’, ‘भारत का सबसे
बदकिस्मत सुल्तान’ और न जाने क्या क्या कहा गया है। ये बेचारा सुल्तान
बदकिस्मत तो था लेकिन मूर्ख नहीं पॉपुलर ट्रेडिशन में तो जनाब की इमेज
बहुत ख़राब हो चुकी है। असलियत तो यह है कि तुगलक में कई अच्छी क्वालिटी भी
थी वह भी आज की तरह लीक से हटकर नयी योजनाएं लाने, और हर चीज़ को नए नजरिये
से देखने में यकीन करता था। मोहम्मद बिन तुगलक जब सुल्तान बना तो आम जनता
का पूरा समर्थन उसके साथ था । मगर धीरे धीरे जब एक एक कर उसकी सारी योजनाएं
फ्लॉप होने लगीं तो जनता का विश्वास उठ गया।
राजधानी बदलने की पहली योजना
मोहम्मद बिन तुगलक ने राजधानी दिल्ली से बदल कर देवगिरी (जिसे बाद
में दौलताबाद नाम दिया गया) को राजधानी बनाना आनन-फानन में लिए इस फैसले के
बाद उसने पूरी पब्लिक को बिना सोचे-समझे दिल्ली से देवगिरी भेज दिया,
जिसमें काफी लोग मारे गए। जबकि सुल्तान मोहम्मद ने यह फैसला बहुत सोच समझ
कर और इकॉनमी गड़बड़ाने के कारण लिया था। दरअसल मुल्तान और सिंध से जुड़े
दिल्ली के बिजनेस में भारी मंदी चल रही थी। दिल्ली से अलग एक पॉलिटिक्स और
इकॉनमी का अड्डा बनाना जरूरी था सल्तनत बचाने के लिए वो दूरी खत्म करना
बहुत जरूरी था। जब सुल्तान को लगा कि ये प्लान चौपट हो गया तो राजधानी
बदलने के ऑर्डर्स वापस ले लिए।
आधुनिक करेंसी तुगलक ने चलाई थी
दूसरी बड़ी योजना थी टोकन करेंसी। सोने और चांदी के सिक्कों के ज़माने में
टोकन मुद्रा के बारे में सोचना एक बहुत बड़ा कदम था। यह योजना अपने समय से
काफी आगे की योजना थी जैसे आजकल के सिक्के और नोट यानी जब सिक्के पर लिखा
रेट उसके खुद के रेट से ज्यादा हो। आज के समय में पूरी दुनिया यही तरीका
अपना चुकी है। जिसका पहली बार जुगाड़ किया था तुगलक ने। सुल्तान के ऐसा
करने की वजह थी। मार्केट में सोना और चांदी बहुत कम बचा था। अगर उससे ही
बिजनेस किया जाता तो इकॉनमी का सत्यानाश हो जाता। इस समस्या से निपटने के
लिए ये तरीका बहुत कारगर था लेकिन लोग इसके लिए तैयार नहीं थे।उनको पता ही
नहीं था कि इस स्कीम का कॉन्सेप्ट क्या है कुछ खामी सिक्के बनाने वालों से
हुई। मार्केट में नकली सिक्कों की बाढ़ आ गई । उस दौर में सोने या चांदी के
सिक्कों की भी जांच की जाती थी।लेकिन पब्लिक ने इन सिक्कों को परखने का
जरा भी रिस्क नहीं उठाया। फिर वही हुआ जो नए नवेलों के साथ होता है। तुगलक
को सिक्के वापस लाकर अपने खजाने में जमा करने पड़े और उसी रेट पर सोने
चांदी से बिजनेस करने की मजबूरी गले आ पड़ी।इकॉनमी की बधिया बैठ गई।
दोआब इलाके में टैक्स बढ़ा
इस तीसरे फरमान के कुछ समय बाद ही सल्तनत का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में
आ गया.लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है। तुगलक के सुल्तान बनते ही पिछले
सुल्तान के वक़्त से चली आ रहीं मुश्किलें और अंदरूनी खींच- तान खुले तौर पर
सामने आने लगीं। एक के बाद एक राज्य बगावत होने लगी। जिनसे जूझने के लिए
चुस्त दुरुस्त फौज की जरूरत थी। फौज को बढ़ाने और तकनीकी से लैस करने में
खाजाना खतम हुआ जा रहा था. मुश्किल ये थी कि इस स्थिति में अर्थव्यवस्था
संभाली कैसे जाए। लेकिन सुल्तान ने हिम्मत नहीं हारी। सूखे से परेशान प्रजा
को को कुछ समय के लिए अनाज और अन्य ज़रुरत की चीज़ें मुफ्त या कम दाम में
बांटी थी।
इतनी सारी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के बीच और योजनाएं फेल होने के बावजूद तुगलक तो अपनी सल्तनत को कंट्रोल करने में कामयाब रहा।
पर आज की परिस्थितिया में जहाँ नये नये सुधारों से देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास मौजूदा सरकार द्वारा जरूर कुछ न कुछ करती दिख रही है लेकिन बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, गिरती शिक्षा व्यवस्था , असंतुष्ट कर्मचारियों व बड़ी संख्या में अस्थाई शिक्षकों और आम जनता को इन सुधारों से फिलहाल कोई तत्काल लाभ मिलता नहीं दिख रहा है।
इतनी सारी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के बीच और योजनाएं फेल होने के बावजूद तुगलक तो अपनी सल्तनत को कंट्रोल करने में कामयाब रहा।
पर आज की परिस्थितिया में जहाँ नये नये सुधारों से देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास मौजूदा सरकार द्वारा जरूर कुछ न कुछ करती दिख रही है लेकिन बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, गिरती शिक्षा व्यवस्था , असंतुष्ट कर्मचारियों व बड़ी संख्या में अस्थाई शिक्षकों और आम जनता को इन सुधारों से फिलहाल कोई तत्काल लाभ मिलता नहीं दिख रहा है।