कार्ल मार्क्स ने कहा था- धर्म अफीम के समान है. पर कोई व्यक्ति क्यों अफीम का प्रयोग करता है, कब शुरू करता है इसका सेवन और कब तक रहता है इसके नशे का आदि ? यदि यही प्रश्न हम धर्म, सम्प्रदाय, पंथ या डेरे से जोड़कर देखें, सोचें; तो कहीं ना कहीं कोई ना कोई कारण तो इसकी जड़ या परिस्थिति जन्य हालात में जरूर दृष्टिगोचर होगा, जो हमें सीधे सीधे नंगी आँखों से भले ही दिखाई नहीं पड़ता, अपितु इसके लिए हमें अपने तथा 'सब्जेक्ट' के अन्तःकरण में झांकना होगा. यहाँ मुझे मेरे ही एक हिंदी अध्यापक का प्रसंग याद आ रहा है. उस समय अध्यापक 'सर' नहीं, गुरू जी होते थे और एक विद्यार्थी के लिए आदर्श भी. जब मैंने अपनी शिक्षा पूरी कर जीवन यापन की नाव में सवारी प्रारम्भ कर दी थी तब एक दिन गुरु जी से अचानक मुलाकात हो गयी. श्रद्धावश मेरे हाथ गुरूजी के चरण स्पर्श करने हेतु नीचे झुके तो पाया कि गुरूजी शराब के नशे में धत थे. उन्हें इस हालत में देखकर मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी. मैंने गुरूजी से प्रश्न किया – गुरूजी आप और शराब पीये हुए? गुरु जी ने एक लम्बी आह भरी और मेरे सर पर हाथ रखकर कहा –तू नहीं समझ पायेगा मेरे हालात को. तू क्या सोचता है कि मैं इसके लाभ हानि के ज्ञान बिना शराब पी रहा हूँ ? मुझे इसका भला बुरा सब ज्ञात है फिर भी मैं पी रहा हूँ तो जरूर कोई भारी मजबूरी या विवश करने वाली स्थिति है. खैर उस समय तो मैं गुरु जी को प्रणाम कर वापस मुड़ लिया परन्तु अब कई बार सोचता हूँ - कोई ना कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके आगे गुरु जी को यह विनाश कारी रास्ता चुनना पड़ा होगा. यही यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है जब हम देखते हैं कि लाखों लोग क्यों किसी डेरे या बाबा के चंगुल में फंसकर अपना समय और जीवन व्यर्थ कर रहे हैं ? क्यों वे इतने उन्मादी हो जाते हैं कि डेरे या बाबा के एक इशारे भर से मरने मारने को तैयार हो जाते हैं ? क्यों अपने आप को सत्संगी कहने वाले प्रेमी दानव बन सब कुछ तहस नहस करने पर उतारू हो जाते हैं ? क्यों उन्हें समाज की मर्यादा, लोकलाज व कानून की सत्ता का भय नहीं रहता ? इन प्रश्नों की तह में जाने से पहले हमें इन डेरों तथा बाबाओं के पनपने की वजह तलाशनी होगी.
मध्यकालीन भारत में पन्द्रहवीं सोलहवीं सदी में संतों का एकदम प्रादुर्भाव हुआ, जिसमे प्रमुख थे कबीर, रैदास, सूरदास, गुरुनानक आदि. इस काल तक आते आते हिन्दू धर्म मात्र ब्राहमण धर्म बन कर रह गया था. सब कुछ ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित पद्धति के अनुसार संचालित होने लगा था. कर्म काण्ड, पूजा पाठ, पठन पाठन एक वर्ग विशेष तक सीमित हो गया था. क्लिष्ट श्लोकों व संस्कृत के नाम पर विद्वता प्रदर्षित की जाती थी. समाज का विभक्तिकरण छूत – अछूत दो वर्गों में हो गया था. ब्राह्मण तथा उनकी पोषक जातियों को छोड़कर बाकी समाज का बृहद हिस्सा अछूत हो गया था. उसे न धार्मिक स्थलों में प्रवेश की अनुमति थी, ना सार्वजानिक उपयोग के स्थलों यथा पानी के कुओं, जोहड़ों, सभा स्थलों का प्रयोग करने की अनुमति थी. उन्हें पीने के पानी के संसाधनों में भी अलग से जगह दी गयी थी वो भी काफी वर्जनाओं के साथ. शिक्षा, पठन- पाठन, प्रवचन सुनने, सत्संग देखने या धार्मिक आयोजनों में उनका भाग लेना पूर्णतया वर्जित था. देवी देवताओं के दर्शन मात्र से भी उन्हें वंचित रखा जाता था. सामूहिक भोज में भाग लेने की तो वो सोच भी नहीं सकते थे. इन जातियों को केवल और केवल उच्च जातियों के चरणों को देखने की छूट थी. आंख उठाकर ऊपर देखने या उनसे जिरह बाजी करना तो बहुत बड़ा अपराध था. यहाँ तक कि ब्राह्मण व पुजारी के रूप में हिन्दू धर्म के ठेकेदार अन्य उनकी पोषक जातियों को भी भ्रम में रखते थे. मंदिर में कब पूजा शुरू होगी, कब बंद होगी, किस दिन होगी सब निर्धारित करना इन्हीं धर्म के ठेकेदारों के अधिकार में था. कुछ हद तक यह स्थिति आज भी बनी हुई है. आज भी मंदिर के पटल कब खुलेंगे, कब बंद होंगे पुजारियों की सुविधा के मुताबिक़ निर्णित होता है. धर्म भीरू जनता को आज भी जानबूझकर गुमराह किया जाता है. देवता के दर्शन के लिए आज भी लम्बी लम्बी कतारें लगाने के बाद मंदिर के पटल खोले जाते हैं. हाँ, भारी दक्षिणा या ऊँची कीमत की टिकट खरीदकर भगवान् के बिना 'वेट' किये दर्शन किये जा सकते हैं. आम जनता का जब तक लाइन छोटी होते होते नंबर आता है तब तक या तो आरती का समय हो जाता है या देवता के श्रृंगार का समय हो जाता है या पटल बंद होने का समय हो जाता है. जानबूझकर लम्बी लम्बी लाइन लगवाई जाती हैं, माना जाता है जितनी लम्बी लाइन देवता के दर्शन के लिए लगी दिखाई देती है उतना ही ऊँचा कद उस देवता का माना जाता है, उतना ही ज्यादा चढ़ावा वहां चढ़ाया जाता है या यों कहें देवता की उतनी ही 'टी आर पी' बढती है और उसी अनुपात में मंदिर का चढ़ावा.
ऐसे ही कलुषित, भेदभावपूर्ण, छूत – अछूत में विभाजित समाज में कबीर, रैदास जैसे समाज सुधारकों का संत के रूप में प्रादुर्भाव होना इन अछूत समझे जाने वाले तबके के लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हुआ. विशेष बात यह भी थी कि ये संत इसी अछूत तबके से जन्म लेकर अपने प्रकृति प्रदत्त ज्ञान के सहारे ऊपर उठ रहे थे. ये संत इन्ही अछूत लोगों के बीच में बैठकर लयबद्ध तरीके से इन्ही लोगों की स्थानीय बोली में साखियाँ, पद तथा दोहे गा गा कर इनको ज्ञान रस पिला रहे थे. जिन लोगों को ज्ञान की बात सुनना, धर्म अधर्म की चर्चा में शामिल होना तथा गुरु के बिलकुल साथ बैठ कर आमने सामने बात करना कभी सपने में भी नसीब नहीं हुआ, उन्हें अब यह सब इतना सहज उपलब्ध हो रहा था कि उन्हें खुद को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आ रहा था . इन लोगों ने इन सन्तों को सर आँखों पर बिठा लिया. इन सन्तों की संगत विस्तृत होने लगी और सैंकड़ों हज़ारों से बढती बढती लाखों में जा पहुंची. लगभग यह दौर दो सौ वर्षों तक यों ही चलता रहा. बाद में इन्हीं गुरुओं के अगली शिष्य प्रणाली में इन पंथों के नियम कायदे भी थोड़े कठोर होते गए. अलग अलग पंथ के प्रतीक चिन्ह बनते गए. गुरु के साथ बैठकर धर्म अधर्म की चर्चा की बजाय गुरू का आसन ऊँचा होने लगा. गुरू के पद की महिमा बढ़ने लगी. गुरु का भगतों से दुराव होने लगा. इन्ही सन्तों के नाम से और पद, साखियाँ व दोहे जुड़ने लगे, जिन्हें इन्ही का बताकर गाया जाने लगा. गुरु को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा. यहाँ तक कि गुरु को भगवान् से भी बढ़कर महिमा मंडित कर दिया गया.
"गुरू गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागु पाय,
बलिहारी गुरू आपनो गोबिंद दियो मिलाय"
हालांकि बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक सामाजिक हालात जस के तस बने रहे, इन अछूत तबकों को हिन्दू धर्म में ब्राहमण संचालित व्यवस्था में अभी भी कोई विशेष स्थान सोपान नहीं मिला. हाँ कुछ इक्के दुक्के लोग शिक्षा के बल पर अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे अवश्य आगे बढे और उन्होंने इन तबकों की दुर्दशा को सुधारने हेतु आवाज़ बुलंद भी की. दक्षिण भारत के ई वी रामास्वामी नाइक्कर, जिन्हें पेरियार भी कहा जाता है, ने नान-ब्राह्मण आन्दोलन भी चलाया और कहा कि उन्हें दुःख इस बात का है कि अभी भी निम्न जातियों के व्यक्तियों को सामूहिक भोज में उच्च जातियों वाली पंक्ति से दूर एक अलग पंक्ति में बैठाया जाता है. बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में ही बाबा साहब आंबेडकर, जो खुद उस समय की सामाजिक संरचना में एक अछूत समझी जाने वाली महार जाति से आये थे, ने भी १९२७ में मंदिर प्रवेश आन्दोलन चलाया. उस समय ब्राह्मण पुजारी बड़े आक्रोशित हुए जब इन महार जाति के दलित लोगों ने मंदिर के टैंक का पानी प्रयोग किया. उस समय बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था –" हम मंदिर के टैंक तक जाकर केवल यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हम भी दूसरों की तरह मनुष्य हैं. "
आज़ादी के बाद से विशेषकर गत तीस वर्षों में इसी अछूत तबके के एक बड़े भाग ने काफी प्रगति की है. शिक्षा के बल पर, आरक्षण की सीढी पर चढ़कर, इन लोगों ने भी सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी अर्जित करके आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त की है तथा सम्पति अर्जन करके एक नए रुतबे को हासिल किया है. अब आर्थिक और भौतिक प्रभावी युग में ये लोग भी अपने समाज में उच्च हो गए हैं. मंदिरों व अन्य धार्मिक तथा सार्वजानिक स्थलों पर इनकी प्रवेश की वर्जनाएं काफी हद तक शिथिल हुई हैं. परन्तु ब्राहमणीकल सिस्टम में अभी भी इनको उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है, जितनी के ये हकदार हैं या जितनी इन्हें इन तथाकथित डेरों में मिल रही है. इन डेरों में इन्हें जातीय आधार पर कोई उपेक्षा नहीं सहनी पड़ती है ना ही छूत - अछूत की कोई वर्जना है. यहाँ इन्हें कोई इनकी जाति का नाम लेकर प्रताड़ित या तिरष्कृत नहीं करता. इन्हें यहाँ ना केवल सम्मान मिलता है अपितु शादी विवाह व अन्य किसी आपदा के समय आर्थिक मदद भी मुहैया करवाई जाती है. इन डेरों में एक विशेष बात यह देखने को भी मिल रही है, जो स्वागत योग्य भी है, कि यहाँ कोई बैकवर्ड जाति या दलित हरिजन जाति या उच्च जाति का विभेदीकरण नहीं है और सब एक ही पंगत में बैठकर भोजन करते हैं, एक ही दरी पर बैठकर सत्संग सुनते हैं. यहाँ किसी को जाति के आधार पर कोई विशेष उच्च या निम्न सौपान हासिल नहीं है. इस समानता के व्यवहार से इन हज़ारों वर्षों से अछूत माने गए तबके को अपने पुराने घावों में मरहम सेक लगती प्रतीत होती है. उनको मिलने वाला सम्मान तथा समानता का व्यवहार उन्हें इन डेरों में आने को आकर्षित करता है. इसी आकर्षण के कारण इन डेरा अनुयायियों की संख्या निरंतर बढती जा रही है तथा रोज नए नए डेरे अस्तित्व में आते जा रहे हैं.
परन्तु गत बीस वर्षों में एक नए गठजोड़ ने जन्म लिया है, जो इन डेरा बाबाओं तथा राजनेताओं के मध्य पनपा है. इस गठजोड़ ने इन्ही अनुयायियों को एक वोट बैंक के रूप में तबदील कर दिया है. अब राजनेता इन बाबाओं से चुनाव के वक्त अपने हक में फतवे जारी करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा पाते हैं तथा बदले में इन बाबाओं तथा डेरों को विशेष लाभ व छूट प्रदान करते हैं. इन बाबाओं के काले कारनामों को एक छतरी का 'कवर' देते हैं. इन्हें सरकारों में विशेष अहमियत देकर इनके अनुयायियों को बाबा की तरफ अधिक आकर्षित होने में मदद करते हैं . हरियाणा के सिरसा सच्चा सौदा डेरा के बाबा राम रहीम गुरमीत सिंह तथा वर्तमान प्रदेश की भाजपा सरकार के मध्य का गठजोड़ भी इसी कड़ी का एक उदाहरण है. बाबा ने गत चुनावों में भाजपा को सहयोग दिया तो भाजपा सरकार ने बाबा के डेरों को लाखों रुपये की ग्रांट तथा बाबा को विशेष सुरक्षा के साथ प्रान्त का स्वच्छता अभियान का एम्बेसडर बनाकर एक अहम् दर्जा प्रदान किया. बाबा की सीबीआई पेशी के समय बाबा के प्रेमियों को बेरोकटोक पंचकुला में कोर्ट के आसपास इकठ्ठा होने देना भी इसी गठजोड़ का दुष्परिणाम है. अब आवश्यकता है ऐसे पुनर्जागरण की जो समाज को बिना किसी भेदभाव के जागृत कर समानता के सूत्र में पिरोये .बाबा साहब आंबेडकर ने १९२७ में कहा था –"हिन्दू समाज को समानता तथा जाति विहीन समाज के रूप में रिओर्गेनाइज करने की आवश्यकता है." पर क्या वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में आज के नेता, जो समाज को अपनी सुविधा अनुसार जातियों में विभक्त रखना चाहते हैं क्योकि उन्हें यह व्यवस्था अधिक रास आती है, अम्बेडकर के सपनों का जाति विहीन व समानता पर आधारित समाज का निर्माण होने देंगे? मामला पेचीदा है.
(जग मोहन ठाकन)
मध्यकालीन भारत में पन्द्रहवीं सोलहवीं सदी में संतों का एकदम प्रादुर्भाव हुआ, जिसमे प्रमुख थे कबीर, रैदास, सूरदास, गुरुनानक आदि. इस काल तक आते आते हिन्दू धर्म मात्र ब्राहमण धर्म बन कर रह गया था. सब कुछ ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित पद्धति के अनुसार संचालित होने लगा था. कर्म काण्ड, पूजा पाठ, पठन पाठन एक वर्ग विशेष तक सीमित हो गया था. क्लिष्ट श्लोकों व संस्कृत के नाम पर विद्वता प्रदर्षित की जाती थी. समाज का विभक्तिकरण छूत – अछूत दो वर्गों में हो गया था. ब्राह्मण तथा उनकी पोषक जातियों को छोड़कर बाकी समाज का बृहद हिस्सा अछूत हो गया था. उसे न धार्मिक स्थलों में प्रवेश की अनुमति थी, ना सार्वजानिक उपयोग के स्थलों यथा पानी के कुओं, जोहड़ों, सभा स्थलों का प्रयोग करने की अनुमति थी. उन्हें पीने के पानी के संसाधनों में भी अलग से जगह दी गयी थी वो भी काफी वर्जनाओं के साथ. शिक्षा, पठन- पाठन, प्रवचन सुनने, सत्संग देखने या धार्मिक आयोजनों में उनका भाग लेना पूर्णतया वर्जित था. देवी देवताओं के दर्शन मात्र से भी उन्हें वंचित रखा जाता था. सामूहिक भोज में भाग लेने की तो वो सोच भी नहीं सकते थे. इन जातियों को केवल और केवल उच्च जातियों के चरणों को देखने की छूट थी. आंख उठाकर ऊपर देखने या उनसे जिरह बाजी करना तो बहुत बड़ा अपराध था. यहाँ तक कि ब्राह्मण व पुजारी के रूप में हिन्दू धर्म के ठेकेदार अन्य उनकी पोषक जातियों को भी भ्रम में रखते थे. मंदिर में कब पूजा शुरू होगी, कब बंद होगी, किस दिन होगी सब निर्धारित करना इन्हीं धर्म के ठेकेदारों के अधिकार में था. कुछ हद तक यह स्थिति आज भी बनी हुई है. आज भी मंदिर के पटल कब खुलेंगे, कब बंद होंगे पुजारियों की सुविधा के मुताबिक़ निर्णित होता है. धर्म भीरू जनता को आज भी जानबूझकर गुमराह किया जाता है. देवता के दर्शन के लिए आज भी लम्बी लम्बी कतारें लगाने के बाद मंदिर के पटल खोले जाते हैं. हाँ, भारी दक्षिणा या ऊँची कीमत की टिकट खरीदकर भगवान् के बिना 'वेट' किये दर्शन किये जा सकते हैं. आम जनता का जब तक लाइन छोटी होते होते नंबर आता है तब तक या तो आरती का समय हो जाता है या देवता के श्रृंगार का समय हो जाता है या पटल बंद होने का समय हो जाता है. जानबूझकर लम्बी लम्बी लाइन लगवाई जाती हैं, माना जाता है जितनी लम्बी लाइन देवता के दर्शन के लिए लगी दिखाई देती है उतना ही ऊँचा कद उस देवता का माना जाता है, उतना ही ज्यादा चढ़ावा वहां चढ़ाया जाता है या यों कहें देवता की उतनी ही 'टी आर पी' बढती है और उसी अनुपात में मंदिर का चढ़ावा.
ऐसे ही कलुषित, भेदभावपूर्ण, छूत – अछूत में विभाजित समाज में कबीर, रैदास जैसे समाज सुधारकों का संत के रूप में प्रादुर्भाव होना इन अछूत समझे जाने वाले तबके के लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हुआ. विशेष बात यह भी थी कि ये संत इसी अछूत तबके से जन्म लेकर अपने प्रकृति प्रदत्त ज्ञान के सहारे ऊपर उठ रहे थे. ये संत इन्ही अछूत लोगों के बीच में बैठकर लयबद्ध तरीके से इन्ही लोगों की स्थानीय बोली में साखियाँ, पद तथा दोहे गा गा कर इनको ज्ञान रस पिला रहे थे. जिन लोगों को ज्ञान की बात सुनना, धर्म अधर्म की चर्चा में शामिल होना तथा गुरु के बिलकुल साथ बैठ कर आमने सामने बात करना कभी सपने में भी नसीब नहीं हुआ, उन्हें अब यह सब इतना सहज उपलब्ध हो रहा था कि उन्हें खुद को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आ रहा था . इन लोगों ने इन सन्तों को सर आँखों पर बिठा लिया. इन सन्तों की संगत विस्तृत होने लगी और सैंकड़ों हज़ारों से बढती बढती लाखों में जा पहुंची. लगभग यह दौर दो सौ वर्षों तक यों ही चलता रहा. बाद में इन्हीं गुरुओं के अगली शिष्य प्रणाली में इन पंथों के नियम कायदे भी थोड़े कठोर होते गए. अलग अलग पंथ के प्रतीक चिन्ह बनते गए. गुरु के साथ बैठकर धर्म अधर्म की चर्चा की बजाय गुरू का आसन ऊँचा होने लगा. गुरू के पद की महिमा बढ़ने लगी. गुरु का भगतों से दुराव होने लगा. इन्ही सन्तों के नाम से और पद, साखियाँ व दोहे जुड़ने लगे, जिन्हें इन्ही का बताकर गाया जाने लगा. गुरु को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा. यहाँ तक कि गुरु को भगवान् से भी बढ़कर महिमा मंडित कर दिया गया.
"गुरू गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागु पाय,
बलिहारी गुरू आपनो गोबिंद दियो मिलाय"
हालांकि बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक सामाजिक हालात जस के तस बने रहे, इन अछूत तबकों को हिन्दू धर्म में ब्राहमण संचालित व्यवस्था में अभी भी कोई विशेष स्थान सोपान नहीं मिला. हाँ कुछ इक्के दुक्के लोग शिक्षा के बल पर अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे अवश्य आगे बढे और उन्होंने इन तबकों की दुर्दशा को सुधारने हेतु आवाज़ बुलंद भी की. दक्षिण भारत के ई वी रामास्वामी नाइक्कर, जिन्हें पेरियार भी कहा जाता है, ने नान-ब्राह्मण आन्दोलन भी चलाया और कहा कि उन्हें दुःख इस बात का है कि अभी भी निम्न जातियों के व्यक्तियों को सामूहिक भोज में उच्च जातियों वाली पंक्ति से दूर एक अलग पंक्ति में बैठाया जाता है. बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में ही बाबा साहब आंबेडकर, जो खुद उस समय की सामाजिक संरचना में एक अछूत समझी जाने वाली महार जाति से आये थे, ने भी १९२७ में मंदिर प्रवेश आन्दोलन चलाया. उस समय ब्राह्मण पुजारी बड़े आक्रोशित हुए जब इन महार जाति के दलित लोगों ने मंदिर के टैंक का पानी प्रयोग किया. उस समय बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था –" हम मंदिर के टैंक तक जाकर केवल यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हम भी दूसरों की तरह मनुष्य हैं. "
आज़ादी के बाद से विशेषकर गत तीस वर्षों में इसी अछूत तबके के एक बड़े भाग ने काफी प्रगति की है. शिक्षा के बल पर, आरक्षण की सीढी पर चढ़कर, इन लोगों ने भी सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी अर्जित करके आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त की है तथा सम्पति अर्जन करके एक नए रुतबे को हासिल किया है. अब आर्थिक और भौतिक प्रभावी युग में ये लोग भी अपने समाज में उच्च हो गए हैं. मंदिरों व अन्य धार्मिक तथा सार्वजानिक स्थलों पर इनकी प्रवेश की वर्जनाएं काफी हद तक शिथिल हुई हैं. परन्तु ब्राहमणीकल सिस्टम में अभी भी इनको उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है, जितनी के ये हकदार हैं या जितनी इन्हें इन तथाकथित डेरों में मिल रही है. इन डेरों में इन्हें जातीय आधार पर कोई उपेक्षा नहीं सहनी पड़ती है ना ही छूत - अछूत की कोई वर्जना है. यहाँ इन्हें कोई इनकी जाति का नाम लेकर प्रताड़ित या तिरष्कृत नहीं करता. इन्हें यहाँ ना केवल सम्मान मिलता है अपितु शादी विवाह व अन्य किसी आपदा के समय आर्थिक मदद भी मुहैया करवाई जाती है. इन डेरों में एक विशेष बात यह देखने को भी मिल रही है, जो स्वागत योग्य भी है, कि यहाँ कोई बैकवर्ड जाति या दलित हरिजन जाति या उच्च जाति का विभेदीकरण नहीं है और सब एक ही पंगत में बैठकर भोजन करते हैं, एक ही दरी पर बैठकर सत्संग सुनते हैं. यहाँ किसी को जाति के आधार पर कोई विशेष उच्च या निम्न सौपान हासिल नहीं है. इस समानता के व्यवहार से इन हज़ारों वर्षों से अछूत माने गए तबके को अपने पुराने घावों में मरहम सेक लगती प्रतीत होती है. उनको मिलने वाला सम्मान तथा समानता का व्यवहार उन्हें इन डेरों में आने को आकर्षित करता है. इसी आकर्षण के कारण इन डेरा अनुयायियों की संख्या निरंतर बढती जा रही है तथा रोज नए नए डेरे अस्तित्व में आते जा रहे हैं.
परन्तु गत बीस वर्षों में एक नए गठजोड़ ने जन्म लिया है, जो इन डेरा बाबाओं तथा राजनेताओं के मध्य पनपा है. इस गठजोड़ ने इन्ही अनुयायियों को एक वोट बैंक के रूप में तबदील कर दिया है. अब राजनेता इन बाबाओं से चुनाव के वक्त अपने हक में फतवे जारी करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा पाते हैं तथा बदले में इन बाबाओं तथा डेरों को विशेष लाभ व छूट प्रदान करते हैं. इन बाबाओं के काले कारनामों को एक छतरी का 'कवर' देते हैं. इन्हें सरकारों में विशेष अहमियत देकर इनके अनुयायियों को बाबा की तरफ अधिक आकर्षित होने में मदद करते हैं . हरियाणा के सिरसा सच्चा सौदा डेरा के बाबा राम रहीम गुरमीत सिंह तथा वर्तमान प्रदेश की भाजपा सरकार के मध्य का गठजोड़ भी इसी कड़ी का एक उदाहरण है. बाबा ने गत चुनावों में भाजपा को सहयोग दिया तो भाजपा सरकार ने बाबा के डेरों को लाखों रुपये की ग्रांट तथा बाबा को विशेष सुरक्षा के साथ प्रान्त का स्वच्छता अभियान का एम्बेसडर बनाकर एक अहम् दर्जा प्रदान किया. बाबा की सीबीआई पेशी के समय बाबा के प्रेमियों को बेरोकटोक पंचकुला में कोर्ट के आसपास इकठ्ठा होने देना भी इसी गठजोड़ का दुष्परिणाम है. अब आवश्यकता है ऐसे पुनर्जागरण की जो समाज को बिना किसी भेदभाव के जागृत कर समानता के सूत्र में पिरोये .बाबा साहब आंबेडकर ने १९२७ में कहा था –"हिन्दू समाज को समानता तथा जाति विहीन समाज के रूप में रिओर्गेनाइज करने की आवश्यकता है." पर क्या वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में आज के नेता, जो समाज को अपनी सुविधा अनुसार जातियों में विभक्त रखना चाहते हैं क्योकि उन्हें यह व्यवस्था अधिक रास आती है, अम्बेडकर के सपनों का जाति विहीन व समानता पर आधारित समाज का निर्माण होने देंगे? मामला पेचीदा है.
(जग मोहन ठाकन)
चंडीगढ़