भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है।
मध्यप्रदेश के भीमबेटका में पाए गए 25 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र, नर्मदा
घाटी में की गई खुदाई तथा मेहरगढ़ के अलावा कुछ अन्य नृवंशीय एवं
पुरातत्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत की भूमि आदिमानव की
प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। यहीं से मानव ने अन्य जगहों पर बसाहट करने व
वैदिक धर्म की नींव रखी थी।
आज से 3,500 वर्ष पूर्व जो सभ्यताएं जीवित थीं उनको पाश्चात्य इतिहासकारों
ने 'प्राचीन सभ्यताएं' मानकर ही मानव इतिहास और समाज का विश्लेषण किया,
लेकिन उनका यह विश्लेषण एकदम गलत और ईसाई धर्म को स्थापित करने वाला था।
इसके लिए उन्होंने ऐसे कई तथ्य नकारे, जो प्राचीन भारत और चीन के इतिहास को
महान बताते हैं और ईसा बाद के समाज से कहीं ज्यादा उन्हें सभ्य सिद्ध करते
हैं।
प्राचीन सभ्यताओं पर अब कुछ ज्यादा ही शोध होने लगे हैं और उनसे नई-नई
बातें निकलकर आ रही हैं, मसलन कि उनका एलियन से संबंध था और वे भी बिजली
उत्पादन की तकनीक जानते थे। धरती पर फैली प्राचीन सभ्यताओं के बात करें तो
धरती के पश्चिमी छोर पर रोम, ग्रीस और मिस्र देश की सभ्यताओं के नाम लिए
जाते हैं तो पूर्वी छोर पर चीन का नाम लिया जाता है। मध्य में स्थित भारत
की चर्चाभर करके उसे छोड़ दिया जाता है। क्यों? क्योंकि भारत को जानने से
उनके समाज और धर्म के सारे मापदंड गिरने लगते हैं, तो वे नहीं चाहते हैं कि
भारत और उसके धर्म का सच लोगों के सामने आए। लेकिन सच कब तक छिपा रहेगा?
दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं से हिन्दू धर्म का क्या कनेक्शन था? या कि
संपूर्ण धरती पर हिन्दू वैदिक धर्म ने ही लोगों को सभ्य बनाने के लिए
अलग-अलग क्षेत्रों में धार्मिक विचारधारा की नए नए रूप में स्थापना की थी?
आज दुनियाभर की धार्मिक संस्कृति और समाज में हिन्दू धर्म की झलक देखी जा
सकती है चाहे वह यहूदी धर्म हो, पारसी धर्म हो या ईसाई-इस्लाम धर्म हो।
ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया,
2000-250 ईसा पूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा
पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम
की सभ्यताएं विद्यमान थीं। उक्त सभी से पूर्व महाभारत का युद्ध लड़ा गया था
इसका मतलब कि 3500 ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी।
सिन्धु-सरस्वती घाटी की सभ्यता (5000-3500 ईसा पूर्व) : हिमालय से निकलकर
सिन्धु नदी अरब के समुद्र में गिर जाती है। प्राचीनकाल में इस नदी के आसपास
फैली सभ्यता को ही सिन्धु घाटी की सभ्यता कहते हैं। इस नदी के किनारे के
दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) में की गई खुदाई में सबसे
प्राचीन और पूरी तरह विकसित नगर और सभ्यता के अवशेष मिले। इसके बाद
चन्हूदड़ों, लोथल, रोपड़, कालीबंगा (राजस्थान), सूरकोटदा, आलमगीरपुर
(मेरठ), बणावली (हरियाणा), धौलावीरा (गुजरात), अलीमुराद (सिंध प्रांत),
कच्छ (गुजरात), रंगपुर (गुजरात), मकरान तट (बलूचिस्तान), गुमला (अफगान-पाक
सीमा) आदि जगहों पर खुदाई करके प्राचीनकालीन कई अवशेष इकट्ठे किए गए। अब
इसे सैंधव सभ्यता कहा जाता है।
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
ये मूर्तियां मातृदेवी या प्रकृति देवी की हैं। प्राचीनकाल से ही मातृ या
प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं।
यहां हुई खुदाई से पता चला है कि हिन्दू धर्म की प्राचीनकाल में कैसी
स्थिति थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना
जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ है।
इतना तो तय है कि इस काल में महाभारत का युद्ध इसी क्षेत्र में हुआ था।
लोगों के बीच हिंसा, संक्रामक रोगों और जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल
पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका
निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है।
नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान
(एन्थ्रोपोलॉजी) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में
कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और सभ्यता
के खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही
जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।
आज जिस हिस्से को पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है, महाभारतकाल में
इसे पांचाल, गांधार, मद्र, कुरु और कंबोज की स्थली कहा जाता था। अयोध्या और
मथुरा से लेकर कंबोज (अफगानिस्तान का उत्तर इलाका) तक आर्यावर्त के बीच
वाले खंड में कुरुक्षेत्र था, जहां यह युद्ध हुआ। आजकल यह हरियाणा का एक
छोटा-सा क्षेत्र है।
उस काल में सिन्धु और सरस्वती नदी के पास ही लोग रहते थे। सिन्धु और
सरस्वती के बीच के क्षेत्र में कई विकसित नगर बसे हुए थे। यहीं पर सिन्धु
घाटी की सभ्यता और मोहनजोदड़ो के शहर भी बसे थे। मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के
दो टापुओं पर स्थित है।
जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई
के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहां की गलियों में
नरकंकाल पड़े थे। कई अस्थिपंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थिपंजरों
ने एक-दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानो किसी विपत्ति ने उन्हें अचानक
उस अवस्था में पहुंचा दिया था।
उन नरकंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी के चिह्न थे, जैसे कि
जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात
देखे गए थे। मोहनजोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाइट्रिफिकेशन के जो चिह्न पाए
गए थे, उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था, क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के
विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। उल्लेखनीय है कि महाभारत में अश्वत्थामा
ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था जिसके चलते आकाश में कई सूर्यों की चमक
पैदा हुई थी।
सुमेरिया 2300-2150 : सुमेर सभ्यता को ही मेसोपोटामिया की सभ्यता कहा जाता
है। मेसोपोटामिया का अर्थ होता है- दो नदियों के बीच की भूमि। दजला
(टिगरिस) और फुरात (इयुफ़्रेट्स) नदियों के बीच के क्षेत्र को कहते हैं।
इसी तरह सिन्धु और सरस्वती के बीच की भूमि पर ही आर्य रहते थे। इसमें
आधुनिक इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया, दक्षिण-पूर्वी तुर्की तथा ईरान के
कुजेस्तान प्रांत के क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र में ही सुमेर, अक्कदी,
बेबिलोन तथा असीरिया की सभ्यताएं अस्तित्व में थीं। अक्कादियन साम्राज्य की
राजधानी बेबिलोन थी अतः इसे बेबिलोनियन सभ्यता भी कहा जाता है। यहां के
बाद की जातियां क्षेत्र तुर्क, कुर्द, यजीदी, आशूरी (असीरियाई), सबाईन,
हित्ती, आदि सभी ययाति, भृगु, अत्रि वंश की मानी गई हैं।
सुमेरिया की सभ्यता और संस्कृति का विकास फारस की खाड़ी के उत्तर में दजला
और फरात नदियों के कछारों में हुआ था। सुमेरियन सभ्यता के प्रमुख शहर ऊर,
किश, निपुर, एरेक, एरिडि, लारसा, लगाश, निसीन, निनिवेह आदि थे। निपुर इस
सभ्यता का सर्वप्रमुख नगर था जिसका काल लगभग 5262 ईपू बताया जाता है। इस
नगर का प्रमुख देवता एनलिल समस्त देश में पूजनीय माना जाता था।
सुमेरिया निवासी भी आस्तिक और मूर्तिपूजक थे। वे भी मंदिरों का निर्माण कर
उनमें अपने इष्ट देवताओं कि मूर्तियां स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना करते
थे। हिन्दू संस्कृति पर आधारित यह सभ्यता ईसा पूर्व 2000 के पूर्व ही
समाप्त हो गई।
सुमेरिया वालों का वर्ष हिन्दुओं जैसा ही 12 मासों का था। उनकी मास गणना
भी चन्द्रमा की गति पर आधारित थी। इस कारण हर तीसरे वर्ष एक माह बढ़ता था,
जो हिन्दुओं के अधिकमास जैसा ही था। हिन्दुओं के समान ही अष्टमी और
पूर्णिमा का वे बड़े उत्साह से स्वागत करते थे।
सुमेरियावासियों का संबंध सिन्धु घाटी के लोगों से घनिष्ठ था, क्योंकि
यहां कुछ ऐसी मुद्राएं पाई गई हैं, जो सिन्धु घाटी में पाई गई थीं। पश्चिम
के इतिहासकार मानते हैं कि सिन्धु सभ्यता सुमेरियन सभ्यता का उपनिवेश स्थान
था जबकि समेल लोग पूर्व को अपना उद्गम मानते थे। सुमेर के भारत के साथ
व्यापारिक संबंध थे।
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता लैंगडन के अनुसार मोहनजोदड़ो की लिपि और मुहरें,
सुमेरी लिपि और मुहरों से एकदम मिलती हैं। सुमेर के प्राचीन शहर ऊर में
भारत में बने चूने-मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो की सांड (नंदी)
की मूर्ति सुमेर के पवित्र वृषभ से मिलती है और हड़प्पा में मिले सिंगारदान
की बनावट ऊर में मिले सिंगारदान जैसी है। इन सबके आधार पर कहा जा सकता है
कि सुमेर सभ्यता के लोग भी हिन्दू धर्म का पालन करते थे। 'सुमेर' शब्द भी
हमें पौराणिक पर्वत सुमेरु की याद दिलाता है।
बेबिलोनिया (2000-400 ईसा पूर्व) : सुमेरी सभ्यता के पतन के बाद इस
क्षेत्र में बाबुली या बेबिलोनियन सभ्यता पल्लवित हुई। अक्कादियन साम्राज्य
की राजधानी बेबिलोन थी, उसके प्रसिद्ध सम्राट् हम्मुराबी (हाबुचन्द्र) ने
अत्यंत प्राचीन कानून और दंड संहिता बनाई। बेबिलोनियन सभ्यता की प्रमुख
विशेषता हम्मुराबी की (2123-2080 ईपू) दंड संहिता है। बेबिलोनियन सभ्यता का
प्रमुख ग्रंथ्र गिल्गामेश महाकाव्य था। गिल्गामेश (2700 ईपू) प्राचीन उरुक
(वर्तमान इराक में) जन्म एक युवा राजा था।
इस सभ्यता के लोग हिन्दु्ओं के समान ही पूजा प्रात: और सायं अर्घ्य, तेल,
धूप, अभ्यंग, दीप, नेवैद्य आदि लगाकर करते थे। ईसा पूर्व 18वीं शताब्दी के
वहां के कसाइट राजाओं के नामों में वैदिक देवताओं के सूर्य, अग्नि, मरूत
आदि नाम मिलते हैं। वहां के हिट्टाइट और मिनानी राजाओं के बीच हुई संधियों
में गवाह के रूप में इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य के नाम मिलते हैं। इससे
स्पष्ट होता है कि बेबिलोनिया के लोग भी हिन्दू धर्म का ही पालन करते थे।
अलअपरना में मिले शिलालेखों में सीरिया, फिलिस्तीन के राजाओं के नाम
भारतीय राजाओं के समान है। असीरिया शब्द असुर का बिगड़ा रूप है। बेबिलोन की
प्राचीन गुफाओं में पुरातात्विक खोज में जो भित्तिचित्र मिले हैं, उनमें
भगवान शिव के भक्त, वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं की
उपासना करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
असीरिया (1450-500 ईसा पूर्व) : असीरिया को पहले अश्शूर कहा जाता था।
अश्शूर प्राचीन मेसोपोटामिया का एक साम्राज्य था। यह असुर शब्द का अपभ्रंश
है। यह दजला नदी के ऊपरी हिस्से में अश्शूर साम्राज्य में स्थित था। इसके
बाद यह साम्राज्य फारस के हखामनी वंश के शासकों के अधीन आ गया।
असीरिया निवासी सूर्यपूजक थे और वहां के राजा अपने आपको सूर्य का वंशज
मानते थे। अथर्वण संप्रदाय में भारत में अंगीकृत अथर्वणि चिकित्सा यहां भी
प्रचार में थी। अथर्ववेद का बहुत-सा भाग असीरिया में प्रचलित था। होम,
यज्ञ, वशीकरण, भूतविद्या आदि प्रकार प्रचलित थे। आयुर्वेद के अष्टांगों में
तथा चरक संहिता के इंद्रिय स्थान के दूताधिकार अध्याय में इन विषयों का
विवेचन किया गया है।
ईरान (2000-2500 ईसा पूर्व) : ईरान को प्राचीनकाल में पारस्य देश कहा जाता
था। आर्याण से ईरान शब्द की उत्पत्ति हुई है। ईसा की 7वीं शताब्दी में जब
खलीफाओं का आक्रमण बढ़ गया, तब अधिकतर को इस्लाम अपनाना पड़ा और जो नहीं
चाहते थे अपनाना उन्हें अपने ही देश को छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना
पड़ी। यहां का मूल धर्म तो वैदिक धर्म ही था लेकिन जरथुस्त्र में वेदों पर
आधारित पारसी धर्म की शुरुआत हुई। प्राचीनकाल में आर्यों का एक समूह ईरान
में ही रहता था। ईरान में वेदकालीन धर्म और संस्कृति का गहरा प्रभाव था।
जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता
है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे।
इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग
वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत
इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक
पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और
अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों
और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं
आता। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र
कर्म करते थे। मिथ्र (मित्रासूर्य), वयु (वायु), होम (सोम), अरमइति (अमति),
अद्दमन् (अर्यमन), नइर्य-संह (नराशंस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी
बड़े-बड़े यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अथ्रवन् (अथर्वन्) नामक याजक
(ब्राह्मण) काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक
मूल आर्य भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली है।
अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु
(सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि।
मिस्र (इजिप्ट- 2000-150 ईसा पूर्व) : मिस्र बहुत ही प्राचीन देश है। यहां
के पिरामिडों की प्रसिद्धि और प्राचीनता के बारे में सभी जानते हैं। ये
पिरामिड प्राचीन सभ्यता के गवाह हैं। प्राचीन मिस्र नील नदी के किनारे बसा
है। यह उत्तर में भूमध्य सागर, उत्तर-पूर्व में गाजा पट्टी और इसराइल,
पूर्व में लाल सागर, पश्चिम में लीबिया एवं दक्षिण में सूडान से घिरा हुआ
है।
यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का
मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र
रहा है। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। यहां पर फराओं राजाओं का
बहुत काल तक शासन रहा है। माना जाता है कि इससे पहले यादवों के गजपत, भूपद,
अधिपद नाम के तीन भाइयों का राज था। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते
उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत
शक्तिशाली था।
मिस्र में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा देवता के रूप में माना जाता है।
भारतीयों ने कहा है- आरोग्यं भास्करादिच्छेत। यहां अनेक औषधियां भारत से
मंगाई जाती थीं। भारतीय और मिस्र की भाषाओं में बहुत से शब्द और उनके अर्थ
समान है, जैसे हरी (सूर्य)- होरस, ईश्वरी- ईसिस, शिव- सेव, श्वेत- सेत,
क्षत्रिय- खेत, शरद- सरदी आदि। मिस्र के पुरोहितों की वेशभूषा भारतीय
पुरोहितों व पंडितों की तरह है। उनकी मूर्तियों पर भी वैष्णवी तिलक लगा हुआ
मिलता है। एलोरा की गुफा और इजिप्ट की एक गुफा में पाई गई नक्काशी और गुफा
के प्रकार में आश्चर्यजनक रूप से समानता है।
मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड वहां के राजाओं की एक प्रकार की कब्रें हैं।
भारतीयों को इस विद्या की उत्तम जानकारी थी। उन्होंने राजा दशरथ का शव उनके
पुत्र भरत के कैकेय प्रदेश से अयोध्या आने तक सुरक्षित रखा था। यूनान
(ग्रीस- 1450-150) : यूनान और भारत के तो बहुत प्राचीनकाल से ही संबंध रहे
हैं। यूनानी देवी और देवताओं में बहुत हद तक समानताएं हैं। उनका संबंध
सितारों से है, उसी तरह जिस तरह की हिन्दू देवी-देवताओं का है।
ग्रीस देश के महाकवि होमर ने ईसा की 8वीं शताब्दी में 'ओडिसी' नामक
महाकाव्य लिखा था जिसमें उसने अपने समय की देश स्थिति का वर्णन किया है। इस
ग्रंथ से पता चलता है कि आयुर्वेद की 'दैव व्यपाश्रय' पद्धति वहां प्रचलित
थी। उसकी दूसरी पुस्तक 'इलियाड' में भारतीय शल्य चिकित्सा के उपयोग का भी
वर्णन है।
डॉ. रॉयल अपनी पुस्तक 'सिविलाइजेशन इन इंडिया' में लिखते हैं कि 'विश्व की
प्रथम चिकित्सा प्रणाली के लिए हम हिन्दुओं के ऋणी हैं।' ग्रीस की
वैद्यकीय चिकित्सा पर भारतीय आयुर्वेद का प्रभाव प्रत्यक्षतः तथा परोक्षतः
(मिस्र, ईरान आदि के माध्यमों से) पड़ा था। डोरोथिया चैम्पलीन लिखते हैं-
'भारतीय आयुर्वेद के शरीर विज्ञान में कोई भी विदेशी शब्द नहीं है जबकि
पाश्चात्य शरीर विज्ञान पर भारत की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।'
सर में मस्तिष्क के ऊपर के भाग को आयुर्वेद में शिरोब्रह्म कहते हैं, वह
ग्रीस और रोम में 'सेरेब्रम' हो गया है। वैसे ही मस्तिष्क के पीछे का भाग
शिरोविलोम 'सेरिबैलम' और हृद 'हार्ट' हो गए हैं। घोड़ों पर सवार होकर
रोगियों की चिकित्सा करने वाले भारतीय अश्विनीकुमारों के युग्म जैसे
'कैक्टस और पोलुपस' ग्रीक युग्म घोड़ों पर सवार होकर रोगियों की रक्षा करते
हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार मोनियर विलियम्स ने स्पष्ट बताया है कि यूरोप के प्रथम
दार्शनिक प्लेटो और पायथागोरस दोनों दर्शनशास्त्र के विषय में सब तरह से
भारतवासियों के ऋणी हैं। पाइथागोरस के नाम से प्रसिद्ध प्रमेय भारत के
बौधायन शुल्ब सूत्र में बहुत पहले से ही विद्यमान है।
रोम (800-500 ईसा बाद) : रोमन सभ्यता के पास खुद का स्वयं का कुछ नहीं था।
उसके पास जो भी ज्ञान था वह मिस्र, भारत और यूनान का दिया हुआ था। रोमनों
ने ही भारतीय पंचांग और कैलेंडर को देखकर अपना खुद का एक कैलेंडर बनाया।
रोम का साम्राज्य पूरे यूरोप में फैला हुआ होने के कारण रोम की सभ्यता का
प्रभाव सारे यूरोप पर पड़ा इसलिए यहां पर केवल एक ही उदाहरण दिया जा सकता
रहा है- रोम के मुद्रसकन लोगों के देवता 'तितिया' के अस्त्र का वर्णन भारत
के इंद्र के वज्र जैसा ही है।
इतिहासकारों के अनुसार बहुत से भारतीय घूमते-घूमते संसार के अनेक देशों
में पहुंचे। वे स्वयं को 'रोम' कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी, परंतु
यूरोप में उन्हें 'जिप्सी' कहा जाता था। वे वर्तमान समय के पाकिस्तान और
अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे। वहां से ईरान और इराक
होते हुए वे तुर्की पहुंचे। फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते
हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए।
इस अवधि में वे लोग यह तो भूल गए कि वे कहां के निवासी हैं, परंतु
उन्होंने अपनी भाषा, रहन-सहन के ढंग, रीति-रिवाज और व्यवसाय आदि को नहीं
छोड़ा। रोम लोगों को उनके नृत्य और संगीत के लिए जाना जाता है। कहा जाता है
कि हर एक रोम गायक और अद्भुत कलाकार होता है।
वास्तव में ईसा युग की प्रथम तीन शताब्दियों में भारत का पश्चिम के साथ
लाभप्रद समुद्री व्यापार हुआ जिनमें रोम साम्राज्य प्रमुख था। रोम भारतीय
सामान का सर्वोत्तम ग्राहक था। यह व्यापार दक्षिण भारत के साथ हुआ, जो
कोयम्बटूर और मदुराई में मिले रोम के सिक्कों से सिद्ध होता है। धार्मिक
इतिहासकारों के अनुसार राजा विक्रमादित्य से रोम का राजा प्रतिद्वंद्विता
रखता था। विक्रमादित्य को ज्योतिष और खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी।
वराहमिहिर जैसे विद्वान उनके काल में थे। उनके प्रयासों के चलते ही आज
दुनिया ने खगोल में उन्नति की।
हरिदत्त शर्मा ज्योति विश्वकोष के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने ही अपना
दिल्ली में एक 'ध्रुव स्तंभ' बनवाया था जिसे आज 'कुतुब मीनार' कहते हैं।
दरअसल, यह ध्रुव स्तंभ 'हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र' है। कुतुब मीनार
के आसपास दोनों पहाड़ियों के बीच से ही सूर्यास्त होता है। वराहमिहिर के
अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से निकलता है। कुतुबुद्दीन लुटेरा तो
मात्र 4 साल ही भारत में रहा और चला गया, जबकि यह कुतुब मीनार (ध्रुव
स्तंभ) 2 हजार वर्ष पुराना सिद्ध किया गया है।
माया सभ्यता (250 ईस्वी से 900 ईस्वी) : अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता
ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। यह
एक कृषि पर आधारित सभ्यता थी। 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के बीच माया सभ्यता
अपने चरम पर थी। इस सभ्यता में खगोल शास्त्र, गणित और कालचक्र को काफी
महत्व दिया जाता था। मैक्सिको इस सभ्यता का गढ़ था। आज भी यहां इस सभ्यता
के अनुयायी रहते हैं।
यूं तो इस इलाके में ईसा से 10 हजार साल पहले से बसावट शुरू होने के
प्रमाण मिले हैं और 1800 साल ईसा पूर्व से प्रशांत महासागर के तटीय इलाक़ों
में गांव भी बसने शुरू हो चुके थे। लेकिन कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मानना
है कि ईसा से कोई एक हजार साल पहले माया सभ्यता के लोगों ने आनुष्ठानिक
इमारतें बनाना शुरू कर दिया था और 600 साल ईसा पूर्व तक बहुत से परिसर बना
लिए थे। सन् 250 से 900 के बीच विशाल स्तर पर भवन निर्माण कार्य हुआ, शहर
बसे। उनकी सबसे उल्लेखनीय इमारतें पिरामिड हैं, जो उन्होंने धार्मिक
केंद्रों में बनाईं लेकिन फिर सन् 900 के बाद माया सभ्यता के इन नगरों का
ह्रास होने लगा और नगर खाली हो गए।
माया सभ्यता का पंचांग 3114 ईसा पूर्व शुरू किया गया था। इस कैलेंडर में
हर 394 वर्ष के बाद बाकतुन नाम के एक काल का अंत होता है। 21 दिसबंर, 2012
को उस कैलेंडर का 13वां बाकतुन खत्म हो जाएगा। हालांकि माया सभ्यता के बारे
में कहा जाता है कि यह भी सिन्धु घाटी और मिस्र की सभ्यताओं की तरह सबसे
रहस्यमयी सभ्यता है, जो अपने भीतर कई अनसुलझे रहस्य समेटे हुए है।
अमेरिकन इतिहासकार मानते हैं कि भारतीय आर्यों ने ही अमेरिका महाद्वीप पर
सबसे पहले बस्तियां बनाई थीं। अमेरिका के रेड इंडियन वहां के आदि निवासी
माने जाते हैं और हिन्दू संस्कृति वहां पर आज से हजारों साल पहले पहुंच गई
थी। माना जाता है कि यह बसाहट महाभारतकाल में हुई थी।
चिली, पेरू और बोलीविया में हिन्दू धर्म : अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया
(वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां
बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर
विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं
मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों
की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।
(अनिरुद्ध जोशी 'शतायु')