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आखिर लक्ष्मीबाई पर वो बात सुनते ही तिलमिला क्यों जाते है सिंधिया... ?

   भोपाल।। मध्य प्रदेश की राजनीति के कद्दावर चेहरे ने कांग्रेस छोड़ दी है। उनके समर्थक 22 विधायकों ने भी कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार जाना तय माना जा रहा है। हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद कई कांग्रेसी नेता उन्हें कोस रहे हैं। इसी कड़ी में एमपी के मंत्री ने ऐसी बात कही है जिसे सुनकर पूरी सिंधिया फैमिली असहज हो जाती है।  
जीतू पटवारी ने क्या कहा? 
    कमलनाथ सरकार के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी ने बगैर नाम लिए सिंधिया परिवार पर बड़ा हमला बोला। पटवारी ने मंगलवार को ट्वीट कर कहा, ‘एक इतिहास बना था 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की मौत से, फिर एक इतिहास बना था 1967 में संविद सरकार से और आज फिर एक इतिहास बन रहा है। तीनों में यह कहा गया है कि हां हम हैं।’ 
    पटवारी के इस ट्वीट को सिंधिया राजघराने से जोड़ कर देखा जा रहा है। आजादी की पहली लड़ाई की नायिका रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से संग्राम करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई थीं। ऐतिहासिक तथ्य है कि सिंधिया राजघराने ने रानी लक्ष्मीबाई की मदद नहीं की थी। वहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयराजे सिंधिया ने 1967 में कांग्रेस से बगावत की थी। इसी क्रम में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत करते हुए अपना इस्तीफा सौंप दिया है और उनके बीजेपी में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे हैं। 
लक्ष्मीबाई और सिंधिया फैमिली का क्या है रिश्ता?
    सिंधिया फैमिली पर आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था। कई बार राजनीतिक बयानबाजी में ये भी कहा जाता रहा है कि सिंधिया फैमिली ने लक्ष्मीबाई को युद्ध के दौरान कमजोर घोड़ा दे दिया था, जिसके चलते अंग्रेजों से युद्ध के दौरान उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। सुभद्रा कुमार चौहान की लिखी कविता में भी इन आरोपों का जिक्र मिलता है। हालांकि इन आरोपों का कोई ठोस ऐतिहासिक तथ्य नहीं मिलता है। 
सिंधिया फैमिली के पक्ष में इतिहास का एक तर्क ये भी है
   इतिहासकारों का एक तबका मानता है कि सिंधिया फैमिली के लिए यह कहना गलत है कि उन्होंने लक्ष्मीबाई के साथ धोखा किया था। इस बात को पुष्ट करने के लिए इतिहासकार बताते हैं, एक जून 1858 को जयाजीराव ग्वालियर से आगरा चले गए थे। वहीं तीन जून को रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते हुए ग्वालियर आई थीं इसलिए यह कहना कि सिंधिया फैमिली ने लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया, गलत होगा। 
    हालांकि ये बात सभी इतिहासकार मानते हैं कि 1857 की क्रांति में सिंधिया फैमिली अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध नहीं करना चाहती थी, ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं थे। उस दौर के लगभग सभी राजपरिवारों ने युद्ध करने से मना कर दिया था। सिंधिया घराना उनमें से एक था। 
   इन राजाओं का मानना था कि अंग्रेजों के सामने उनकी सेना तनिक भी नहीं टिकेगी। ऐसे में युद्ध में जाने का फैसला अपने ही लोगों की हत्या कराने के समान होगा। हालांकि अंग्रेजों से लोहा लेने वाले और युद्ध नहीं करने वाले राजाओं के अपने-अपने तर्क हैं, कौन सही हैं कौन गलत यह देश की जनता अपने-अपने हिसाब से तय करती रही है। 
लक्ष्मीबाई वाले आरोपों पर इन मौकों पर असहज होती रही है सिंधिया फैमिली
    यूं तो आजादी के बाद से ही भारतीय राजनीति में सिंधिया फैमिली के लोग बीजेपी (तब जनसंघ थी) और कांग्रेस दोनों ही पक्षों में रहे हैं। इसके बावजूद चुनावों में सिंधिया फैमिली और लक्ष्मीबाई की कहानी उछाली जाती रही है। 2010 में ग्वालियर के बीजेपी शासित नगर निगम की वेबसाइट ने सिंधिया राजघराने पर आरोप लगाते हुए लिख दिया था कि इस परिवार ने रानी लक्ष्मीबाई को कमजोर घोड़ा देकर धोखा दिया था। उस समय यशोधरा राजे सिंधिया ही ग्वालियर से बीजेपी सांसद थीं। आनन-फानन में यह कंटेंट नगर निगम की वेबसाइट से हटाया गया था। 
    साल 2006 में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया इंदौर में रानी लक्ष्मीबाई की एक मूर्ति का अनावरण करने पहुंची थीं। यहां उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। इस दौरान वसुंधरा ने कहा था कि एक महिला के रूप में वह लक्ष्मीबाई का काफी सम्मान करती हैं। 
    इंदौर से कद्दावर नेता और बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय कई मौकों पर सिंधिया फैमिली पर निशाना साधने के लिए लक्ष्मीबाई वाली बात कहते रहे हैं। हिंदूत्ववादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की किताब ‘इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ में भी सिंधिया फैमिली पर आरोप लगाया गया है कि इस राजघराने ने अंग्रेजों का साथ दिया था। 
    हालांकि इन सारे विवादों के बाद भी सिंधिया घराने के कई सदस्य बीजेपी में रहकर अपनी राजनीतिक पारी चला रहे हैं। आजादी के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया जनसंघ के टिकट पर चुनाव भी लड़ी थीं। महाराजा जीवाजीराव भी हिन्दू महासभा के पक्षधर रहे हैं।

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