इतने बडे़ मेडिकल शॉप में मेडिकल वाले को कैसे पता होता है कि कौन सी औषधि कहा है?
दवाई की दुकान पर दवाई लेने जाने वाले हर शक्श को ऐसा ही लगता है, कि मेडिकल वाले इतनी दवाइयों के नाम कैसे याद रखते होंगे?
वैसे मेडिकल स्टोर में काम करने के लिए अनुभव जरूरी है और वो अनुभव सिर्फ किसी मेडिकल स्टोर पर काम कर के ही मिलेगा। मेडिकल का अनुभव लेने के लिए मन लगाकर दिल से अगर कोई काम करेगा तो वो 3 साल में मेडिकल स्टोर ओर डॉक्टर की पर्ची पढ़ना सिख जाएगा।
आमतौर पर अपनी अंग्रेजी भाषा का उच्चारण ओर मेडिसिन के नाम मे उच्चारण में फर्क होता है। मेडिकल चलाने के लिए फार्मेसी करना जरूरी होता है। लेकिन सिर्फ फार्मेसी करने से ही आप मेडिकल स्टोर नही चला सकते। उसके लिए आपको मेडिकल पर काम करके अनुभव लेना भी जरूरी होता है। मेडिकल स्टोर पर हर जगह फार्मासिस्ट कम और अनुभवी लोग ज्यादा होते है। पूरी दुकान को वो ही लोग संभालते है। फार्मासिस्ट तो सिर्फ नाम के लिए रखे जाते है।
किसी भी दवाई की जानकारी जो अनुभवी लोग देंगे वो फार्मासिस्ट नही दे सकता। क्योंकि उनको मेडिसिन के ड्रग के बारे में पढ़ाया ही नही जाता।
पहले मेडिकल में सब दवाइया कंपनी के हिसाब से रखी जाती थी। तब कंपनिया सीमित थी और आज के समय बहुत सारी दवाइयों की कंपनिया है। इसलिए अब दवाइयों को A To Z तक क्रमानुसार रखी जाती है। जैसे A के नाम से शुरु होने वाली सब बोतले A वाली लाइन में सेल में रखी जाती है, उसी तरह बाकी भी जिससे जिस नाम की दवा होती है, उसी सेल या खाने में से वो दवाई ढूंढ के दे देते है। आजकल कम्प्यूटर है तो अगर कंप्यूटर में स्टॉक दिखेगा तो दवाई भी आसानी से मिल जाती है।
मेडिकल वाले दवाई को खपत के हिसाब से दवाओं का स्टॉक मेंटेन रखते है। जैसे किसी ग्राहक को महीने में दवाई के कितने पते या बोतल लगेगी या लगती है, वे डोज़ के हिसाब से पूरा स्टॉक मेंटेन रखते है।
कोई भी मेडिकल वाला किसी भी दवाई का ड्रग फार्मूला, दवा की कंपनी ओर उस दवा का ब्रांड नाम हमेशा याद रखता है जिससे कि सेम ड्रग फॉर्मूले की दूसरी कंपनी की दवाई चला सकते है। क्योंकि समझदार व्यक्ति को दवाई के फार्मूले से काम होता है ना कि ब्रांड नाम से।
हर मेडिकल स्टोर पर दवाई की दो कैटेगरी होती है, स्टैण्डर्ड ओर जेनरिक। स्टैण्डर्ड दवाई में मुनाफा स्कीम पकड़ के 20 से 24 % तक या ज्यादा से ज्यादा 30% तक भी होता है। ये दवाई इनके ब्रांड ओर कंपनी के नाम से चलती है। ये दवाई आपको पूरे भारत मे कही भी आसानी से मिल सकती है।
जेनरिक दवाई में मुनाफा सबसे ज्यादा होता है, 100 से 200 % तक। ये दवाई भी कम लागत पर नामचीन कंपनी ही बनाती है। इन दवाओं की कंपनी कोई मार्केटिंग नही करती है। ये दवाएं सीधे मेडिकल स्टोर वाला ही मार्किट में चलाता है, क्योंकि इसमें मुनाफा ज्यादा होता है। ये दवाएं स्टैण्डर्ड के मुकाबले थोड़ा कम असरकरक होती है। लेकिन इनको लेने से मरीज को कोई तकलीफ नही होती। जेनरिक दवाये ही ज्यादातर दुकानों में बेचने की ज्यादा से ज्यादा होड़ होती है।
आपको कभी न कभी हॉस्पिटल में ड्रिप चढ़ने या कभी रक्त दान करने में जो पाइप काम में आता है, जिसे IV set कहते है, आपने खरीदा होगा। आपने देखा होगा उस पर एमआरपी 150 या 200 या इससे भी ज्यादा अंकित होती है और आपने इतने पेसो में खरीदा भी होगा। आपको बता दे कि वो मेडिकल वाले को सिर्फ 15 रूपये में ही आता है।
आप देख सकते है की इसमे गरीब की बहुत हालात खराब हो जाती है। क्योंकि उस समय जितना उससे पैसा मांगा जाता है उतना तो उसे देना ही पड़ता है।
आजकल सरकार जेनरिक दवा का खूब प्रचार कर रही है उसकी अलग से दुकाने भी खोल रही है। अगर आम आदमी तक इसकी पहुँच करनी है तो जेनरिक दवाओं की एमआरपी को फिक्स कर दिया जाए तो ही दवाओं की कालाबाज़ारी ओर गरीबो से लूट बन्द हो सकती है। सबसे ज्यादा अगर जनता को लूटा जाता है तो वो है हॉस्पिटल ओर मेडिकल स्टोर पर आपको हम कुछ उदाहरण फ़ोटो के साथ दे रहे है, जो बहुत से लोग इसे खाते भी होंगे।
नीचे दी गई ये गैस की या एसिडिटी की दवा है इसकी एमआरपी लगभग 116 रुपये है और ये मेडिकल वाले कि खरीदी सिर्फ 13 रुपए है।
ये वाली दवा पैन किलर है जो सरदर्द, बुखार, बदन दर्द या कोई भी दर्द में काम आती है। इसका एमआरपी 57 रूपये है और इसकी खरीदी सिर्फ 17 रूपये है।
आज के समय सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार दवाई की दुकान खोलना है। अब तो फार्मेसी लाइसेंस भी 3 लाख में आसानी से बिना पढ़ाई और बिना परीक्षा दिए आसानी से मिल जाता है। वैसे भी बहुत जगह फर्जी लाइसेंस वाले लोग आराम से दुकान चला रहे है। साल में एक बार या 2 बार Drug Inspector (दवा निरीक्षक) जब मेडिकल पे चेकिंग के लिए आता है तब भले भी दुकान में कितनी भी गलतिया निकले, वो सिर्फ जेब भरने से मतलब रखते है।