सरकार के साथ अधर में क्यों पहुंच गया अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूलों का भविष्य?
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सरकार के साथ अधर में क्यों पहुंच गया अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूलों का भविष्य?

सावधान लिखने वाला राउडी राठौड़ है, बुरा लगने की आदत हो तो इस पोस्ट को ना पढ़े  
Government English Medium School
  सरकार ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तो धड़ाधड़ खोल दिए लेकिन पर्याप्त स्टाफ नहीं होने से इनका मकसद पूरा नहीं हो पा रहा। बता दे की सरकार की शिक्षक भर्ती प्रणाली ही कुछ ऐसी है कि डेढ़ लाख तनख्वाह उठाने वाले शिक्षकों को ही ढंग से अंग्रेजी ही नहीं आती है तो वह अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चो को क्या खाक अंग्रेजी में पढाएगे? वही शिक्षकों को सरकार ने दिनभर बेमतलब की इतनी रिपोर्टों को बनाकर भेजने की जिम्मेदारी थोप रखी है की शिक्षकों का आधे से ज्यादा दिन तो सिर्फ उन फ़र्ज़ी रिपोर्टों को भरने और अपने आकाओं को भेजने में ही निकल जाता है। वही बाकी बचे-कूचे समय में वह स्कूलों के रसोड़ों में मिड डे मिल के नाम पर उलझे रहते है। सरकारी स्कूलों की स्थितियां देखकर तो कुछ ऐसा ही लगता है की सरकार ने मास्टरों को बावर्ची और सरकारी स्कूल में पढ़ने आने वाले बच्चो को बिलकुल ही भूखा समझ लिया है। राजस्थान में कई सरकारी स्कूलों की हालत ऐसी है जहा रिटारमेंट के करीब मास्टरों की भी सरकार ट्रेनिंग के मार्फ़त सरकारी पैसों में गबन का खेल, खेल रही है। 
  देश में जहा दो नंबर से ली गई डिग्री से बने मास्टर हो या आरक्षण की आंधी में बने सरकरी कर्मचारी या पैसे देकर हासिल की गई नौकरी हो सरकार से लेकर निचले स्तर तक मानों सब कुछ बच्चो के भविष्य के साथ उस वक्त खेलने पर आमादा है जब एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदनों की संख्या तक़रीबन दस हज़ार के भी पार पहुंच चुकी है। वही शहरों के हालात भी कुछ ऐसे ही है की कब कोई जर्जर स्कूल गिर जाए और देश का भविष्य कब उसमे दफ़न हो कर मर जाए कुछ कहा नहीं जा सकता? वही लाख सरकार तक पहुंचाई गई परिवेदनाए कचरे के डिब्बे की शोभा बड़ा रही है, क्यों की उस तंत्र को एक अनपढ़ भिखारी टाइप का मंत्री कण्ट्रोल कर रहा है। हर बार सरकार बनी आम जनता ने अपना अमूल्य वोट अपनी भलाई के लिए नेताओं के झूठे आश्वासनों को सच मानते हुए दे दिया, लेकिन हर बार नेता जनता के विकास के लिए आए बजट को खा-पीकर साँड की माफिक चौड़े हो गए। जनता के टेक्स के पैसों की बन्दर बाँट ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसी थी कि जो अपने दामन में पाक साफ़ थे वह भी एक डर का शिकार हो कर खामोश हो गए। 
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   6 से 12 वी तक का तो पाठ्यक्रम ही कुछ ऐसा है की बच्चे उसको करने के बाद खुद अपने आप को बेरोजगार और लुटा हुआ समझने लग जाते है। जहा निजी सेक्टर में अंग्रेजी और परस्नालिटी अपना दबदबा कायम किए हुए है, वही सरकारी बीए और एमए किये हुए बच्चे बेवकूफ आदमी और महामूर्ख आदमी से उपमानित किये जाते है। चोरो के राज़ में बच्चो का भविष्य क्या होगा यह बच्चो के साथ-साथ उनके माँ-बाप भी नहीं जानते? कुछ हो ना हो लेकिन देश में अवसरों की असमानता के कारण तेज़ी से पढ़े-लिखे यूवा अलगावादीयो और अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो देश को एक बड़े आंतरिक युद्ध की और धकेल रहा है। 
  हमारे देश ने जहा कई वर्षो तक कांग्रेस को राज़ दिया लेकिन स्थितिया विकराल होती चली गई। फिर बीच में अचानक से खुद को स्वघोषित देवपुरुष साबित कर मोदी जी आ गए जनता वर्षो से प्रताड़ित थी, इसलिए उनकी "एंटायर इन पॉलिटिक्स" की डिग्री और उनकी फेंकम फाक को भी सही मान बैठी। वैसे काठ की हांड़ी का रंग कितने दिनों तक चलेता है। समय के साथ सब कुछ साफ़ होता चला गया। सुना है देश में किसी एक राजनैतिक पार्टी का ज़मीर ज़िंदा था उसने लोगो से शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार पर अपना वायदा निभाया जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी तरजीह दी, लेकिन "एंटायर इन पॉलिटिक्स" की डिग्रीधारक उस महापुरुष के मिर्ची लग गई और अपनी पालतू सीबीआई, ईडी और अन्य एजेंसियों से उन्हें ब्लेकमेल करना शुरू कर दिया। काले धन की बात करने वाले उस दिव्यपुरुष ने हर जिले में अपनी पार्टी के पांच सितारा होटल जैसे आलीशान कार्यालय बना दिए। उसे आम जनता के ना स्कूल दिखे, ना स्वास्थ्य, ना ही यूवाओं की बेरोजगारी क्योंकि उस बरुपिये को पता है, की वह कुछ बेकसूरों को मरवाकर फिर हिंदू-मुस्लिम कर सत्ता को हथिया लेगा। उसे तो सिर्फ अपने पूंजीपति मालिको की चिन्ता दिन-रात सताए रहती है, आखिर उसका असली मकसद देश की जनता को दिवालिया कर अपने पूंजीपति मालिको की खिदमत मे हाजिर कर आर्थिक गुलाम बनाना ही तो है।
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  राजस्थान प्रदेश की बात करें तो प्रदेश में अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों से मुकाबला करने के लिए आधी-अधूरी तैयारी के साथ खोले गए सरकारी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के लिए तैयार शिक्षकों का इनसे मोह भंग होेने लग गया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम के लिए बाकायदा साक्षात्कार के जरिए तैनात किए गए 42 प्राचार्य अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल छोड़कर वापस हिन्दी माध्यम के स्कूलों में आ गए हैं। यदि सरकार इन्ही अंग्रेजी माध्यमों को पढ़ाने का ज़िम्मा यदि प्रोफेशनल डिग्री वाले युवाओं को दे देती तो वह आधी से भी कम तनख्वाह में बच्चो को पढ़ाने में अपनी जी जान झोक देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्यों की सरकार को कचरा ढोने की आदत हो गई है, क्योंकी ना ही सरकार पढ़ी-लिखी है ना ही उसके मंत्री और नेता फिर इतना दिमाग उनकों देगा कौन? सुना है दिल्ली सरकार की तो सब कुछ फ्री करने के बाद भी सरकार को अरबो रूपये के राजस्व का फायदा हुआ है, लेकिन यह किसी करिश्मे से कम नहीं इसके पीछे जरूर पढ़े लिखे लोगो का दिमाग होगा। 
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  वही राजस्थान में हाल ही में हुए तबादलों के दौर में अंग्रेजी विद्यालय से हिंदी विद्यालय में वापसी के लिए इन प्राचार्योें ने डिजायर तक कराई। सत्ता में आते ही राज्य की कांग्रेस सरकार ने महात्मा गांधी अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोलने का निर्णय किया था। योजना के तहत शुरुआती चरण में 33 जिलों में 33 अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले गए थे। प्रारंभिक दौर में इन स्कूलों के प्रति अभिभावकों में भी खासा उत्साह देखा गया। प्रवेश के लिए आवेदन भी बंपर आए थे। लेकिन सरकार की निजी स्कूलों को फायदा देने की कूटनीति के चलते वह ऐसी जगह खोले गए की समय के साथ ही शहरी क्षेत्र के बच्चे भी इन स्कूलों से दूर हो गए। वही इन 33 स्कूलों की सफलता से उत्साहित सरकार ने अंग्रेजी माध्यम के और स्कूल खोलने का निर्णय किया। लेकिन घोषणाओं को लागू करने की जल्दबाजी में कई स्थानों पर हिन्दी माध्यम के स्कूलों को ही अंग्रेेजी माध्यम में बदल दिया गया। अंग्रेजी का माहौल शहरी क्षेत्र के लिए तो ठीक है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसका विरोध भी व्यापक हुआ है। क्योंकि ग्रामीण अंचलों में अंग्रेजी को लेकर पारिवारिक माहौल भी किसी से छुपा नहीं है। 
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   वही विपक्ष का कहना है कि राज्य सरकार भले ही अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोले लेकिन हिंदी माध्यम स्कूलों का विकल्प भी खुला रखे। विपक्ष ने तो यहां तक कहा कि हिंदी माध्यम के स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम में बदलने से हिंदी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है। बच्चों को हिंदी माध्यम में पढ़ने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है। ऐसे में उनका भविष्य चौपट होने की आशंका पैदा हो गई है। इन सब के बीच इस योजना का स्याह पक्ष यह है कि सरकार ने धड़ाधड़ स्कूल तो खोल दिए हैं लेकिन उनमें पर्याप्त स्टाफ न होने के कारण योजना अपने मकसद में सफल नहीं हो पा रही है। सरकार को इन स्कूलों में स्टाफ की कमी दूर करने के साथ वे कारण भी खोजने होंगे जिनकी वजह से शिक्षक अंग्रेजी माध्यम से हिन्दी माध्यम में लौटना चाह रहे हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि तबादलों के दौर में अपनी पसंद की जगह मिलने के कारण संस्था प्रधानों ने बदलाव को तरजीह दी। अंग्रेजी माध्यम के शिक्षकों का अलग से काडर बनाने की घोषणा कागजी ही न रहे, इसका भी ध्यान रखना होगा। अन्यथा बेहतर मकसद से शुरू किए गए इन स्कूलों का भविष्य अधर में ही है।

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