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मुस्लिम महिलाओं में क्यों उठी ख़तने के ख़ात्मे की मांग?

 भारत में महिला खतना के ख़िलाफ़ उठी आवाज़
Khatna
 भारत में मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग बोहरा समुदाय की महिलाओं में खतना यानी उनके जननांग के बाहरी हिस्से क्लिटोरिस को रेज़र ब्लेड से काट देने का चलन मौजूद है, लेकिन इसके ख़िलाफ़ अब आवाज़ें उठनी शुरू हो गई हैं। 
 महिलाओं या बच्चियों का खतना धार्मिक कारणों से होता है और वो भी सुन्न किए बिना। अंग्रेजी में इसे एफ़जीएम यानी फीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन कहते हैं। इस क्रूर परंपरा पर दुनिया के बहुत से देशों में प्रतिबंध है। अब कुछ बोहरा समुदाय की महिलाओं ने इस परंपरा पर रोक लगाने की मांग की है। 
  इस दर्द से गुजर चुकीं मासूमा रानाल्वी बताती हैं कि जब वो सात साल की थीं, तब उनकी दादी उन्हें आइसक्रीम और टॉफ़ियां दिलाने का वायदा कर बाहर ले गईं। वह बताती हैं, “मैं बहुत उत्साहित थी और उनके साथ ख़ुशी-ख़ुशी गई। वह मुझे एक जर्जर पुरानी इमारत में ले गईं. मैं सोच रही थी कि यहां कैसा आइसक्रीम पार्लर होगा। वह मुझे एक कमरे में ले गईं, एक दरी पर लिटाया और मेरी पैंट उतार दी। 
  “उन्होंने मेरे हाथ पकड़े और एक अन्य महिला ने मेरे पैर, फिर उन्होंने मेरी योनि से कुछ काट दिया। मैं दर्द से चिल्लाई और रोना शुरू कर दिया। उन्होंने उस पर कोई काला पाउडर डाल दिया। मेरी पैंट ऊपर खींची और फिर मेरी दादी मुझे घर ले आईं।”
   यह 40 साल पुरानी बात है लेकिन मासूमा कहती हैं कि उनके साथ जो हुआ वह उसके सदमे से वो अब भी उबर नहीं पाई हैं। इसलिए इस महीने की शुरुआत में उन्होंने और कुछ अन्य बोहरा महिलाओं ने चेंजडॉटओआरजी नाम की एक वेबसाइट में एक याचिका डाली है जिसमें सरकार से एफ़जीएम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है। 
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  मासूमा कहती हैं कि इस परंपरा की वजह यह विश्वास है कि “महिला यौनिकता पितृसत्ता के लिए घातक है और महिलाओं को सेक्स का आनंद लेने का कोई अधिकार नहीं है और जिस महिला का खतना हो चुका होगा, वो अपने पति के प्रति अधिक वफ़ादार होगी और घर से बाहर नहीं जाएगी।”
   “इसका एकमात्र उद्देश्य महिला की यौन इच्छा को ख़त्म करना और सेक्स को उसके लिए कम आनंददायक बनाना है।” एफ़जीएम अफ़्रीका के कई हिस्सों और मध्य एशिया में सदियों से जारी है लेकिन भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में इसके बारे में ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता है। यहां सिर्फ़ दाऊदी बोहरा समुदाय में ये परंपरा पाई जाती है। 
  यमन के शिया मुसलमानों का एक हिस्सा रहे बोहरा 16वीं सदी में भारत आए थे। आज वह मुख्यतः गुजरात और महाराष्ट्र में रहते हैं। 
  दस लाख से अधिक आबादी वाला यह समुदाय अच्छा-ख़ासा समृद्ध है और दाऊदी बोहरा देश में सबसे पढ़े-लिखे समुदायों में से एक हैं। दिसंबर 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें एफ़जीएम को दुनिया भर से ख़त्म करने का संकल्प लिया गया। बहुत से देशों ने इस पर प्रतिबंध भी लगा दिया है। लेकिन भारत में ऐसा कोई क़ानून नहीं है और बोहरा अब भी इस परंपरा का पालन करते हैं- जिसे यहां खतना या महिला सुन्नत कहते हैं। 
  भारत में चेंजडॉटओआरजी की राष्ट्रीय प्रमुख प्रीति हरमन ने बीबीसी को बताया, “एफ़जीएम पर ज़्यादातर बातचीत फुसफुसा कर ही की जाती है, कम से कम अब तक।” “भारत में पहली बार महिलाओं के एक समूह ने इस बारे में बात की है। समूह में शामिल महिलाएं एफएमजी को झेल चुकी हैं। उनका संदेश ऊंचा और साफ़ है- एफ़जीएम पर रोक लगनी चाहिए।”
   कला इतिहासकार हबीबा इंसाफ़ भी बोहरा समुदाय से हैं और उन्होंने इस याचिका पर हस्ताक्षर भी किए हैं। वो कहती हैं, “इस परंपरा की क़ुरान में इजाज़त नहीं है। अगर होती तो भारत में सभी मुसलमान इसका पालन करते।हमारे समुदाय में यह इसलिए चल रही है क्योंकि कोई इस पर सवाल नहीं उठाता।”
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  वो कहती हैं कि एफ़जीएम लंबे समय में हानिकारक प्रभाव छोड़ सकता है- यह मनोवैज्ञानिक और यौनिकता को हानि पहुंचा सकता है। इंसाफ़ कहती हैं, “इसके अलावा एफ़एमजी प्रशिक्षित लोग भी नहीं करते, इसलिए अकसर इसमें समस्याएं पैदा हो जाती हैं। मैंने ऐसी महिलाओं के बारे में सुना है जो एफ़जीएम के दौरान अत्यधिक खून बहने से मर गईं।” 
   कुछ साल पहले एक बोहरा महिला ने ऐसी ही याचिका शुरू की थी- जिन्होंने अपना नाम ज़ाहिर करने से इनकार कर दिया। उन्होंने बोहरा समुदाय के तत्कालीन रूहानी पेशवा (सर्वोच्च धार्मिक नेता) सैय्यदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन से एफ़जीएम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। 
   मासूमा कहती हैं कि यह याचिका ‘कूड़ेदान में फेंक दी गई थी।’ सैय्यदना के एक प्रवक्ता ने सलाह दी थी कि “बोहरा महिलाओं को समझना चाहिए कि उनका धर्म इस प्रक्रिया की हिमायत करता है और उन्हें बिना किसी बहस के इसे अपनाना चाहिए।”
   यह एक ऐसी सलाह थी जिसे याचिकाकर्ता मानने को तैयार नहीं हैं और इसलिए इस बार उन्होंने भारत सरकार से दखल देने की मांग की है। इंसाफ़ कहती हैं, “यह उत्पीड़न का एक तरीका है, और इसे रुकना ही चाहिए।”