एक क्षत्रीय राजपूत राजा अग्रवालों के अग्रसेन महाराज कैसे बन गए?
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एक क्षत्रीय राजपूत राजा अग्रवालों के अग्रसेन महाराज कैसे बन गए?

Maharaja Agresen
 महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी क्षत्रिय राजा थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय: कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेंगे। 
  महाराजा अग्रसेन दया और करुणा के लिए जाने जाते थे और उनको अग्रवाल समाज के जनक की ख्याति प्राप्त है। इनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था, लेकिन इन्हें पशुओं की बलि से बहुत ही नफरत थी। इसी कारण इन्होने क्षत्रिय धर्म का त्याग कर दिया था और वैश्य धर्म धर्म को अपना दिया था।
 महाराजा अग्रसेन प्रताप नगर के राजा वल्लभ और रानी भगवती के यहाँ ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जन्म लिया था। इनका जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। इनके अनुज भाई के नाम शूरसें था। जिन्होंने बाद में अग्रवाल समाज के साथ-साथ अग्रोहा धाम की स्थापना की थी।
   आपको बता दे कि बचपन से ही अग्रेसन जी बड़े ही दयालु और करुणामय स्वभाव वाले व्यक्ति रहे थे, इसी कारण इनके मन में मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षी के लिए भी एक समान दया भाव था। उन्होंने इस भाव के चलते धार्मिक पूजा-अनुष्ठानों में पशु बलि को गलत बताते हुए अपना क्षत्रिय धर्म छोड़ कर वैश्य धर्म को अपना लिया था।
महाराजा अग्रसेन कौन थे?
  समाज सुधारक, युगपुरुष, महादानी, लोकनायक, बलि प्रथा को रोकने वाले महाराजा अग्रसेन का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था। शारदीय नवरात्रि के पहले दिन को पूरा वैश्य समाज बड़ी ही धूमधाम से महाराजा अग्रसेन की जयंती को मानते है। महाराजा अग्रसेन की याद में महाराजा अग्रसेन जयंती मनाई जाती है।
  इनके नाम पर अग्रवाल समाज ने जगह-जगह पानी की प्याऊ, अस्पताल, धर्मशाला, स्कूल, कॉलेज, उद्यान, विचरण स्थल बनाए हुए है। एक मान्यता के अनुसार अग्रवाल समाज का जनक महाराजा अग्रसेन को माना जाता है। महाराजा अग्रसेन उन विभूतियों में से थे जो सभी के हित और सभी के सुख जैसे कार्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर और याद किए जाएंगे।
महाराजा अग्रसेन जी का जीवन परिचय
  महाराजा अग्रसेन जी का जन्म द्वापर युग के अंत और कलयुग के शुरुआत के मध्य आश्विन शुक्ल प्रतिपदा यानि शारदीय नवरात्रि के पहले दिन को हुया था। उनके जन्मदिन को अग्रवाल समाज द्वारा बड़े ही धूमधाम से अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। समाज वाले जयंती के आने से पूर्व ही जुट जाते है, इनके जयंती के दिन बहुत सारे धार्मिक अनुष्ठान, स्कूल-कॉलेज में प्रतियोगिता इत्यादि की जाती है।
   दुनिया में आज जिस समाजवाद की बात की जाती है उसको 5000 वर्ष पूर्व ही महाराजा अग्रसेन ने सार्थक कर दिखाया था। महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का सच्चा प्रणेता कहा जाता है। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु महाराजा अग्रसेन ने नियम बनाया था कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले हर व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया नगद व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार करने के लिये धन का प्रबन्ध हो जाए। उन्होंने पुन: वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य के पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुन: प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया। महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय: कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेंगे।
   इनके बारे में ये भी कहा जाता है कि इनके जन्म के समय ही महान गर्ग ऋषि ने उनके पिता श्री वल्लभ से कह दिया था कि अग्रसेन जी आगे चलकर बहुत बड़े शासक बनेंगे और उनके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और युगों-युगों तक इनका नाम अमर रहेगा।
कब हुआ था जन्म? 
   धार्मिक मान्यतानुसार मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवीं पीढ़ी में सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को महाराजा अग्रसेन का जन्म हुआ था, जिसे दुनिया भर में अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये थे। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था कि यह बालक बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।
  महाराजा अग्रसेन एक सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे। जिन्होंने प्रजा की भलाई के लिए वणिक धर्म अपना लिया था। महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहां आयोजित स्वयंवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया। इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ।
अग्रसेन महाराज का विवाह
  अग्रसेन जी के दो विवाह हुए थे। पहली शादी नागराज की बेटी माधवी से और दूसरी शादी नागवंशी की पुत्री सुंदरावती से की थी। इनकी पहली शादी स्वयंवर के जरिए हुई थी। राजा नागराज के यहाँ आयोजित इस स्वयंवर में दूर-दराज से राजा-महाराजाओं के साथ-साथ स्वयं स्वर्ग लोक से इन्द्र देवता भी आए थे, लेकिन राजकुमारी माधवी ने महाराजा अग्रसेन को अपने वर में चुना था।
   राजा इन्द्र इसे अपना अपमान मान बैठे और क्रोधित हो उठे। अपनें क्रोध का प्रकोप प्रतापनगर के नगरवासियों को उठाना पड़ा, इन्द्र देव ने प्रतापनगर में बारिश की एक बूँद भी नहीं बरसाई। नतीजजन प्रतापनगर में भयंकर अकाल पड़ गया और चारों तरफ त्राहिमाम मच गया। अपने नगरवासियों की ऐसी हालात देख कर अग्रसेन जी और उनके छोटे भाई शूरसेन ने अपने प्रतापी और दिव्य शक्तियों के पराक्रम से राजा इन्द्र से घमासान युद्ध लेने का फैसला लिया।
  अग्रसेन जी का पलड़ा भारी और विजय सुनिश्चित होते देख देवताओं और नारद मुनि ने इन्द्र देव और महाराज अग्रसेन के बीच संधि प्रस्ताव को रखा और सुलह करवा दी गई। लेकिन इन्द्र देव अपने अपमान को याद कर कर के प्रताप नगर के रहवासियों को ले लिए कोई न कोई मुसीबत खड़ी कर ही देते थे।
  इन्द्र देव की बीमारी को जड़ से हटाने के लिए अग्रसेन जी ने हरियाणा और राजस्थान के बीच बहने वाली सरस्वती नदी के किनारे भगवान शंकर की तपस्या करने चले गए। शंकर जी ने उनकीं तपस्या से प्रसन्न हो कर उन्हे बताया कि महादेवी लक्ष्मी की उपासना करें वो आपको सही मार्ग बताएगी।
   भोलेनाथ के कहे अनुसार अग्रसेन जी लक्ष्मी देवी की तपस्या करने में जुट गए और इन्द्र देव इनकी तपस्या भंग करने में आखिरकार अग्रसेन जी की तपस्या से प्रसन्न हो कर दर्शन दिए और उन्हें बताया कि अगर वे कोलपुर के राजा महीरथ (नागवंशी) की पुत्री सुंदरावती से विवाह कर लेंगे तो उन्हें उनकी सभी शक्तियां प्राप्त जो जायेंगी, जिसके चलते इन्द्र देव उनसे आमना-सामना करने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा। इसके साथ देवी लक्ष्मी ने नए राज्य की स्थापना निडर होकर करने का भी हुक्म दिया। इसलिए महाराजा अग्रसेन जी ने सुंदरावती से विवाह कर प्रतापनगर को संकट से बचाया।
अग्रवाल जाति का उद्गम
  क्षत्रिय कुल में जन्मे अग्रसेन जी ने पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों में पशु बलि की निंदा करते हुए अपना धर्म त्यद गैया था एवं नए वैश्य धर्म की स्थापना की थी। इसी वजह से वे अग्रवाल समाज के जनक हुए। इसको व्यवस्थित करने के लिए अठारह (18) यज्ञ किए गए थे और उन्हीं के अनुसार गौत्र बने थे।
  महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र थे और उन सभी पुत्रों को अठारह ऋषि मुनियों ने यज्ञ करवाए। वहीं 18 वें यज्ञ में जब पशु की बलि होने वाली थी तब अग्रसेन जी ने जमकर विरोध किया और वो अंतिम बलि नहीं होने दी।
अग्रसेन महाराज के गोत्र (Agrasen Maharaj Gotra)
अग्रवाल समाज के 18 गोत्र इस प्रकार हैं- एरोन / एरन, बंसल, बिंदल / विंदल, भंडल, धारण / डेरन, गर्ग / गर्गेया, गोयल / गोएल / गोएंका, गोयन / गंगल, जिंदल, कंसल, कुछल / कुच्चल, मधुकुल / मुग्दल, मंगल, मित्तल, नंगल / नागल, सिंघल / सिंगला, तायल और तिंगल / तुन्घल है। इस प्रकार बनी वैश्य समाज ने पैसे कमाने के रास्ते बनाए और आज तक यह जाति व्यापार के लिए जानी जाती है।
  महाराजा वल्लभ के निधन के बाद अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ऋषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास है। आज भी यह स्थान अग्रहरि और अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और मां लक्ष्मी देवी का भव्य मंदिर है। अग्रसेन ने अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ऐसी मान्यता है कि महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे।
  उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया। उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोड़े को बहुत बेचैन और डरा हुआ देख उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशु बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसा से दूर ही रहता है।
 माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई। ऋषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया। एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।
 महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श कर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।
  कहते हैं कि एक बार अग्रोहा में बड़ी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोड़ी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।
अग्रसेन महाराज का अंतिम समय
   अपने राज्य में सब कुछ कर के राजा अग्रसेन ने अपना पूरा राज्य अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु को सौंपकर स्वयं वन में तपस्या करने चले गए। अग्रसेन महाराज ने लगभग 100 सालों तक राज़ किया था। इन्हें न्यायप्रियता, दयालुता के कारण इतिहास के पन्नों में एक भगवान तुल्य स्थान दिया गया।
  भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने इन पर कई किताबें लिखी थी, इनकी नीतियों पर अध्ययन करके एक अच्छा शासक बना जा सकता था। सन 29 सितंबर 1976 में इनके राज्य अग्रोहा (Agroha Dham Haryana) को धार्मिक धाम बनाया गया। इस धाम में अग्रसेन जी का बहुत बड़ा मंदिर भी बनाया गया है जिसकी स्थापना 1969 बंसत पंचमी के दिन की गई थी। इसे अग्रवाल समाज का तीर्थ भी कहते है।
अग्रसेन जयंती कब मनाई जाती हैं?
  महाराजा अग्रसेन जयंती आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा अर्थात् नवरात्री के पहले दिन मनाई जाती हैं। महाराजा अग्रसेन जयंती के दिन कई सारे बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और विधि विधान से पूजा पाठ किये जाते हैं।
   आज भी इतिहास में महाराज अग्रसेन परम प्रतापी, धार्मिक, सहिष्णु, समाजवाद के प्रेरक महापुरुष के रूप में उल्लेखित हैं। देश में जगह-जगह अस्पताल, स्कूल, बावड़ी, धर्मशालाएँ आदि अग्रसेन के जीवन मूल्यों का आधार हैं और ये जीवन मूल्य मानव आस्था के प्रतीक हैं। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित आग्रेय ही अग्रवालों का उद्गम स्थान आज का अग्रोहा है। दिल्ली से 190 तथा हिसार से 20 किलोमीटर दूर हरियाणा में महाराजा अग्रसेन राष्ट्र मार्ग संख्या 10 हिसार-सिरसा बस मार्ग के किनारे एक खेड़े के रूप में स्थित है। जो कभी महाराजा अग्रसेन की राजधानी रही, यह नगर आज एक साधारण ग्राम के रूप में स्थित है जहाँ पांच सौ परिवारों की आबादी है। इसके समीप ही प्राचीन राजधानी अग्रेह (अग्रोहा) के अवशेष थेह के रूप में 650 एकड़ भूमि में फैले हैं। जो अग्रसेन महाराज के अग्रोहा नगर के गौरव पूर्ण इतिहास को दर्शाते हैं।

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