पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरात जिले में पीर डोले शाह की मज़ार है। डोले शाह औरंज़ेब के ज़माने में यहाँ रहा करते थे। पीर साहब का दावा था कि वो बाँझ औरतों को औलाद दे सकते हैं परन्तु उनकी शर्त ये थी कि औरतें अपना पहला बच्चा उनकी दरगाह पर पीर की सेवा के लिए छोड़ जाएंगी।
ये परंपरा आज तक चली आ रही है और एक अनुमान के मुताबिक़पिछले तीन सौ साल मेंएक लाख से ज़्यादा बच्चे दरगाह की नज़र किये गए।
ये बच्चे जो दरगाह पर पल कर बड़े होते थे, इनकी खासियत ये थी की ये अपनी उम्र के हिसाब से शारीरिक तौर पर तो लम्बे-चौड़े, हष्ट-पुष्ट हो जाते थे, परन्तु इनका सर एक-दो साल के बच्चे जितना बड़ा ही रहता था।
साथ में ये मंदबुद्धि भी होते थे और दरगाह इनसे भीख मंगवा कर अपनी कमाई करती थी। इसका कारण यह था की यहाँ छोड़े गए साल-दो-साल के मासूम बच्चों को इसी उम्र से सर पर एक लोहे का हेलमेट पहना कर कस दिया जाता था।
ये लोहे की टोपी सालों तक बंधी रहती थी. इससे इन बच्चों के सर के बनावट उतनी ही रह जाती थी और साथ में इनका मानसिक विकास भी रुक जाता था।
इनको "चूहों" का नाम दिया जाता था और इन्हे भीख मांगने के लिए दूर-दूर तक भेजा जाता था। दरगाह पर हो रही इस अमानवीय हरकत की ख़बर अंग्रेज़ी हुक़ूमत तक पहुंची तो उसने इसकी जांच कराई।
परन्तु सबूतों और गवाहों के अभाव में ये साबित नहीं हो सका कि यहाँ पर रह रहे बच्चों की शारीरिक और मानसिक अपंगता का कारण क्या है।
हुक़ूमत की दख़ल के चलते दरगाह के स्थानीय अक़ीदतमंदों (श्रद्धालुओं) में नाराज़गी भी पनपने लगी। अतः अँगरेज़ अधिकारियों ने इसे "माइक्रोसेफली" नामक बीमारी का नाम देकर पल्ला झाड़ लिया।
परन्तु वो ये नहीं समझा पाए की ये बीमारी सिर्फ दरगाह विशेष के बच्चों तक ही क्यों सीमित है। आज़ादी के बाद भी इस मज़ार पर "चूहों" की संख्या बेरोक-टोक बढ़ती गयी। तो अंततः 1969 में तत्कालीन फौज़ी तानाशाह जनरल अयूब खान के आदेश पर पाकिस्तान के वक़्फ़ विभाग ने मज़ार का अधिग्रहण कर लिया। इसके चलते नए "चूहों" की संख्या में कुछ अंतर आया, परन्तु 1977 में पाकिस्तान के तीसरे फौज़ी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ की हुक़ूमत के दौरान पाकिस्तानी समाज का इस तरह इस्लामीकरण हुआ कि सरकारी विभागों और जिहादी तंज़ीमों में कोई फ़र्क़ ही नहीं बचा।
डोले शाह की मज़ार भी इससे अछूती नहीं रही और सरकारी नियंत्रण के बाद भी वहां दरगाह के मौलवियों की मनमानी फ़िर से शुरू हो गयी। नतीजतन आज भी गुजरात शहर में दस हज़ार से ज़्यादा "चूहे" भीख मांग कर दरगाह का खज़ाना भर रहे हैं और एक नारकीय ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त हैं और आज भी बड़ी संख्या में औरतें दरगाह पर अपनी पहली औलाद छोड़ कर जा रही हैं। इन बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनों शामिल हैं।ऐसी ही ऐक "चूहा" 30 वर्षीय युवती नाज़िया है जिसे उसकी माँ दरगाह पर बचपन में ही छोड़ गयी थीं। इन "चूहों" के शोषण की कहानियां रूह कंपा देती हैं, लेकिन पाकिस्तानी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगती।