बांसवाड़ा/राजस्थान।। श्रद्धा भक्ति ओर आस्था से ओतप्रोत बेणेश्वरधाम के श्रीहरी मंदिर में 58 फीट उंचाई पर 66 किलो का शिखर स्थापित किया गया है। जी हां राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के निकट श्रद्धा भक्ति ओर आस्था से ओतप्रोत बेणेश्वरधाम नामक पवित्र धाम पर जिसे अर्पण तर्पण और समर्पण की धरा कहा जाता है। जनजातीय वर्ग के आस्था के प्रमुख केंद्र के रूप में विख्यात बेणेश्वरधाम के निष्कलंक मावजी महाराज के सानिध्य में इस पावन धाम पर 6 दिवसिय स्वर्ण शिखर प्रतिष्ठा महोत्सव के समापन अवसर पर, श्रीं दशावतार की मुर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा विधि विधान से की गई।
इस अवसर पर कार्यक्रम में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, आसपुर विधायक विधायक गोपीचंद्र मीणा, केबीनेट मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालविया, सांसद कनकमल कटारा, अर्जुन लाल मीणा, सलुबंर विधायक अमृतलाल, घाटोल विधायक हरेंद्र निनामा, गढ़ी विधायक कैलाश मीणा, जिला प्रमुख श्रीमती रेशम मालवीया, पुर्व मंत्री धनसिंह रावत, पुर्व मंत्री भवानी जोशी सहित अनेक जानी-मानी हस्तियां धार्मिक महोत्सव में शरीक हुए। धाम पर महंत अच्चुतानंद जी महाराज व गुरु माता भारती देवी ने पुजा अर्चना की। धाम पर प्रतिष्ठाचार्य पंडीत निकुंज मोहन पंण्डया, किर्तिश भट्ट, हिंमाशु आदि पंडित मोजुद रहें, जिनके तत्वावधान में धाम पर हवन-यज्ञ का आयोजन भी किया गया।
बेणेश्वर धाम का इतिहास
आदिवासियों का कुम्भ कहे जाने वाला बेणेश्वर मेला राजस्थान के डूंगरपुर में लगता हैं. बेणेश्वर देश में आदिवासियों के बड़े मेलों में से एक हैं जहाँ बड़ी संख्या में लोग आते हैं. माही, सोम व जाखम नदियों के संगम पर माघ शुक्ल पूर्णिमा को मेला भरता हैं. जो डूंगरपुर शहर से 38 किमी की दूरी पर हैं.आज के इस लेख में हम बेणेश्वर धाम और मेले के बारे में जानकारी दे रहे हैं.
धार्मिक अनुष्ठानों का किया जाता हैं आयोजन
अंग्रेजी महीनों के अनुसार फरवरी माह में बेणेश्वर का मेला भरता हैं. मेले के दौरान कई धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता हैं. राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा गुजरात राज्यों से बड़ी संख्या में भील व आदिवासी समुदाय के लोग आते हैं. आदिवासियों के मुख्य संत मावजी हैं जिन्हें इस दिन विशेष रूप से याद किया जाता हैं.
मेले के दौरान बाणेश्वर महादेव का मंदिर सुबह पांच बजे से रात के 11 बजे तक खुला रहता है. सुबह के समय शिवलिंग को स्नान कराने के बाद केसर का भोग लगाया जाता है और उसके आगे जलती अगरबत्ती की आरती की जाती है.
शाम को लिंग पर ‘भभुत’ (राख) लगाया जाता है और महीन बाती वाला दीपक जलाकर आरती की जाती है। भक्त गेहूं का आटा, दाल, चावल, गुड़, घी, नमक, मिर्च, नारियल और नकदी चढ़ाते हैं. बाणेश्वर मेले में भाग लेने वाले भील हर रात अलाव के आसपास बैठकर ऊंची आवाज में पारंपरिक लोक गीत गाते हैं. कल्चरल शो का आयोजन कबीले के युवाओं द्वारा किया जाता है। कार्यक्रम में भाग लेने के लिए ग्रामीणों के समूहों को भी आमंत्रित किया जाता है.
दुनियाभर में आदिवासी संस्कृति की पहचान का यह सबसे बड़ा धाम हैं इसलिए इसे आदिवासियों का कुम्भ भी कहा जाता हैं. प्राकृतिक मनोरम स्थली के बीच बने बेणेश्वर धाम में विभिन्न संस्कृतियों का नजारा देखते ही बनता हैं. बताया जाता हैं कि पिछले तीन सौ वर्षों से लगातार यहाँ पर मेला भरता हैं.
इस धाम पर भारत के विभिन्न क्षेत्र मुख्यतः उतरी भारत से अलग-अलग संप्रदाय, पंथो, महाजन ,भक्तगण एवं श्रद्धालु इस मेले के शुभारंभ के मौके पर यहाँ पहुचते हैं. रात में यहाँ लोक नृत्य में भक्त शामिल होते हैं. दूर दराज से भक्त गण यहाँ अपनी मनोकामनाओं को लेकर आते हैं. भक्ति समागम में मावजी, कबीर और मीरा के भजन रातभर गूंजते हैं.
सालभर एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, संक्रांतियों और कई पर्व व त्यौहारों पर बेणेश्वर के पवित्र संगम तीर्थ में स्नान का यह रिवाज कई सदियों से चला आ रहा है, लेकिन माघ माह में बेणेश्वर धाम की स्नान परंपरा का विशेष महत्व रहा है.
बेणेश्वर मेला
बेणेश्वर मेला, डुंगरपुर जिले में आयोजित होने वाला लोकप्रिय मेला है फरवरी मार्च माह में आयोजित आदिवासी बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं. बेणेश्वर का यह मेला माघ शुक्ल पूर्णिमा के अवसर पर सोम, माही व जाखम नदियों के पवित्र संगम पर डूंगरपुर से करीब 65 किमी बेणेश्वर नामक स्थान पर भरता हैं.
तीनों नदियों के संगम पर स्थित इस स्थान पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए बेणेश्वर मंदिर जाने की तमन्ना हर किसी की रहती है. बेणेश्वर के मंदिर के परिसर में लगने वाला यह मेला भगवान शिव को समर्पित होता है. बेणेश्वर में भगवान शिव के साथ साथ विष्णु जी का मंदिर भी हैं. इस मंदिर के बारे में कहा जाता हैं कि विष्णु जी के अवतार मावजी महाराज ने यहाँ कठोर तपस्या की थी, यहाँ मावजी का भी एक विशाल मंदिर बना हुआ हैं.
संत मावजी
बेणेश्वर धाम तीन नदियों के बीच 250 एकड़ में बसा छोटा सा टापू हैं, जहाँ कई हिन्दूओं की आदिवासी संस्कृति से जुड़े कई मंदिर हैं. डूंगरपुर महारावल आसकरण ने 1500 ई के आसपास शिव मंदिर का निर्माण करवाया था.
18 वीं सदी में साबला में संत मावजी का जन्म साबला डूंगरपुर में हुआ था. मावजी ने शिव मन्दिर में बैठकर ही तपस्या की तथा चौपडा लिखा था. मावजी महाराज ने सोमसागर, प्रेमसागर, मेघसागर, रत्नसागर एवं अंनतसागर इन पांच पुस्तकों की रचना की थी